Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 400
________________ दसवां उद्देशक ३६१ ४०१७. जोगतिए करणतिए दप्प-पमायपुरिसे य भावम्मि। ४०२३. एवं नवभेदेणं, पाणइवायादिगे उ अइयारे। एतेसिं तु विभागं, वुच्छामि अहासमासेणं ।। निरवेक्खाण मणेण वि, पच्छित्तितरेसि उभएणं॥ जो प्रायश्चित्त योगत्रिक, करणत्रिक, दर्प-निष्कारण, इस प्रकार नौ प्रकारों से प्राणातिपात आदि विषयक अकल्प का प्रतिसेवन, प्रमाद, पुरुष-गुरु आदि विषयक होता है अतिचार का जो प्रायश्चित्त है, वह भावविषयक है जो निरपेक्ष वह भाव विषयक प्रायश्चित्त है। अब मैं इनका विभाग यथानुपूर्वी अर्थात् प्रतिमा में स्थित हैं उनको मानसिक अतिचार सेवन का कहूंगा। भी प्रायश्चित्त प्राप्त होता है और जो इतर अर्थात् गच्छस्थित हैं ४०१८. जोगतिए करणतिए, सुभासुभे तिविधकालभेएणं। उनको दोनों-मानसिक तथा कायिक अतिचार का प्रायश्चित्त सत्तावीसं भंगा, दुगुणा वा बहुतरा वावि॥ आता है। योगत्रिक तथा करणत्रिक दो-दो प्रकार के होते हैं-शुभ ४०२४. वायाम-वग्गणादी, धावण-डेवण य होति दप्पेणं। तथा अशुभ। इनके त्रिविधकालभेद से सताइस विकल्प होते हैं। पंचविधपमायम्मी, जं जहि आवज्जती तं तु॥ (मन से, वचन से, काया से करना, कराना, अनुमोदन निष्कारण व्यायाम, वल्गन आदि करता है, धावन-दौड़ करना-३४३-९ हुए।) इनको अतीत, अनागत और वर्तमान लगाना, डेपन-पत्थर आदि फेंकना-ये क्रियाएं करता है, उसको कालत्रिक से गुणन करने पर ९४३२७ हुए। इनको शुभ-अशुभ तत् तत् विषयक प्रायश्चित्त आता है। जो पांच प्रकार के प्रमाद में द्विगुणित करने पर ५४ विकल्प तथा द्विक, त्रिक संयोग करने पर से जिस प्रमाद का सेवन करता है उसका प्रायश्चित्त प्राप्त होता बहुतर हो जाते हैं। ४०१९. वावे मिहमंबवणं, मणसाकरणं तु होतऽवुत्ते वि। ४०२५. गुरुमादीया पुरिसा, तुल्लवराहे वि तेसि नाणत्तं। ४० अणुजाणसु जा वुप्पउ, मण कारावण अवारेंते॥ परिणामागादिया वा, इढिमनिक्खंत असहू वा।। किसी संयत ने सोचा-मैं यहां आम्रवन का वपन करूं। ४०२६. पुमं बाला थिरा चेव, कयजोग्गा य सेतरा। उसने आम्रवन का वपन नहीं किया फिर भी वह मनसाकरण है। अधवा दुविहा पुरिसा, होति दारुण-भद्दगा। किसी गृहस्थ ने पूछा-तुम्हारा अनुमोदन हो तो मैं यहां आम्रवन गुरु आदि पुरुषों, परिणामक-अपरिणामक तथा अतिका वपन करूं। तुम मुझे आज्ञा दो। इस प्रकार कहने पर भी यदि परिणामक व्यक्तियों अथवा ऋद्धिमान् निष्क्रमण अथवा अऋद्धि- . संयत उसका निषेध नहीं करता तो वह करवाने जैसा ही है। मान् निष्क्रमण, असहायक अथवा सहायक, पुरुष, स्त्री नपुंसक ४०२०. मागहा इंगितेणं तु, पेहिएण य कोसला। अथवा बाल और तरुण अथवा स्थिर और अस्थिर, कृतयोग तथा अकृतयोग, अथवा स्वभावतः दारुण और भद्र-इन सबके अद्भुत्तेण उ पंचाला, नाणुत्तं दक्खिणावहा।। समान अपराध में भी प्रायश्चित्त का नानात्व है। ४०२१. एवं तु अणुत्ते वी, मणसा कारावणं तु बोधव्वं । ४०२७.पायच्छित्ताऽऽभवंते य, ववहारो सो समासतो भणितो। मणसाऽणुण्णा साधू, चूयवणं वुत्त वुप्पति वा॥ __ जेणं तु ववहरिज्जति, इयाणि तं तू एवक्खामि ।। मागध-मगधदेशवासी इंगित से, कौशल देशवासी दृष्टि पूर्वोक्त प्रायश्चित्तों में आभवत् व्यवहार का संक्षेप में वर्णन से, पांचालदेशवासी आधी बात को सुनकर पूरा अभिप्राय जान किया गया है। अब मैं जिस व्यवहार से व्यवहार किया जाता है, लेते हैं। दक्षिणापथ के लोग बिना कहे नहीं जान पाते। इस प्रकार उसको कहूंगा। वचन से न कहने पर भी, निवारणा के अभाव में उसे मन से ४०२८. पंचविहो ववहारो, दुग्गतिभयचूरगेहि पण्णत्तो। कारापण ही समझना चाहिए। मनसा अनुज्ञा अथवा अनुमोदन आगम-सुत-आणा धारणा य जीते य पंचमए। यह है-अच्छा है यहां आम्रवन उप्त है अथवा आम्रवन का वपन दुर्गतिभय के चूरक महापुरुषों ने पांच प्रकार का व्यवहार किया जा रहा है। प्रज्ञप्त किया है-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत पांचवां ४०२२. एवं वइ कायम्मी, तिविधं करणं विभासबुद्धीए। हत्थादि सण्ण छोडिय, इय काये कारणमणुण्णा ।। ४०२९. आगमतो ववहारो, सुणह जहा धीरपुरिसपण्णत्तो। इस प्रकार वचन और काया से करणत्रिक को अपनी बुद्धि पच्चक्खो य परोक्खो, सो वि य दुविहो मुणेयव्वो। से व्याख्यायित करे। वचन से करना, कराना तथा अनुमोदन ४०३०. पच्चक्खो वि य दुविहो, इंदियजो चेव नो व इंदियजो। करना यह सुप्रतीत है। काया से करना भी ज्ञात है। हाथ आदि से इंदियपच्चक्खो वि, पंचसु विसएसु नेयव्वो।। नाखून आदि काटने के साधन की ओर संकेत करना, काया से ४०३१. नोइंदियपच्चक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो। कराना और अनुमोदन करना है। ओहि-मणपज्जवे या, केवलनाणे य पच्चक्खे।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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