Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 397
________________ ३५८ सानुवाद व्यवहारभाष्य और जो अनंतर से प्राप्त होती है वह मंडली। आवलिका और ३९८६. सुह-दुक्खितेण जदि उ, परखेत्तुवसामितो तहिं कोई। मंडलिकाक्रम के दो प्रकार छिन्न और अछिन्न पूर्व कहे जा चुके हैं। बेति अभिनिक्खमामी, सो तू खेत्तिस्स आभवति ।। यह श्रुतोपसंपद् है। आगे सुख-दुःख उपसंपदा के विषय में सुखदुःखित ने यदि परक्षेत्र में किसी को उपशमित किया कहूंगा। है-सम्यक्त्व प्राप्त कराई है और वह कहता है कि मैं ३९८१. अभिधारे उवसंपण्णो, अभिनिष्क्रमण करता हूं, प्रव्रज्या स्वीकार करता हूं तो वह क्षेत्रिक दुविधो सुह-दुक्खितो मुणेयव्वो।। का आभाव्य होगा, उसका नहीं। तस्स उ किं आभवती, ३९८७. अध पुण गाहित दसण, ताधे सो होति उवसमंतस्स। सच्चित्ताऽच्चित्तलाभस्स॥ कम्हा जम्हा सावय, तिण्णी वरिसाणि पुव्वदिसा।। अभिधारण करता हुआ जो सुखदुःखसंपत् को प्राप्त होता यदि सुखदुःखी ने किसी को पहले सम्यक्त्व प्राप्त कराई है उसके सचित्त और अचित्त-दोनों प्रकार के लाभ के मध्य थी तो वह सम्यक्त्वग्राही का आभाव्य होता है। प्रश्न होता उसका आभाव्य क्या है वह वक्तव्य है। है-ऐसा क्यों? क्योंकि श्रावक के तीन वर्ष तक पूर्वदिग्३९८२. सहायगो तस्स उ नत्थि कोई, पूर्वापन्नता होती है। सुत्तं च तक्केइ न सो परत्तो। ३९८८. एतेण कारणेणं, सम्मद्दिढिं तु न लभते खेत्ती। एगाणिए दोसगणं विदित्ता, ___एसो उवसंपन्नो, अभिधारेंतो इमो होति। सो गच्छमब्भेति समत्तकप्पं ।। इसीलिए क्षेत्रिक पूर्वग्राहित सम्यक्दृष्टि को प्राप्त नहीं कर जिसका कोई सहायक नहीं है, अकेला है जो दूसरे से सूत्र सकता। यह सुखदुःख उपसंपदा को प्राप्त का कथन है। की अपेक्षा नहीं रखता क्योकि स्वयं सूत्रार्थ से परिपूर्ण है, जो अभिधारयन् यह होता हैएकाकी होने, रहने के दोषगणों को जानकर समाप्सकल्प वाले ३९८९. मग्गणकहणपरंपर, अभिधारेंतेण मंडलीऽछिन्ना। गच्छ को प्राप्त करता है-यह सुखदुःखोपसंपदा है। ___ एवं खलु सुह-दुक्खे, सच्चित्तादी तु मग्गणया।। ३९८३. खेत्ते सुहदुक्खी तू, अभिधारेंताई दोण्णि वी लभति। सुखदुःख उपसंपदा वाला अन्य गच्छ की मार्गणा करता पुर-पुच्छसंथुयाई, हेट्ठिल्लाणं च जो लाभो॥ है। किसी का कथन होता है कि अमुक स्थान में गच्छ है। उसकी जो सुख-दुःख उपसंपदा से उपसंपन्न है वह परक्षेत्र में भी अभिधारणा करता है तो उसके परंपर आवलिका छिन्न हो जाती दोनों अर्थात् पूर्वसंस्तुत और पश्चाद्संस्तुत का अभिधारण है। अनन्तर मंडली अच्छिन्न होती है। इस प्रकार सुखदुःख उपकरता है। उसके द्वारा दीक्षित, जो उससे अधस्तन हैं, उनका संपदा वाले की सचित्तादि विषयक मार्गणा की है। लाभ भी उसी को प्राप्त होता है। ३९९०. जइ से अत्थि सहाया, ३९८४. परखेत्तम्मि वि लभती, सो दो वी तेण गहण खेत्तस्स। जदि वावि करेंति तस्स तं किच्चं । जस्स वि उवसंपन्नो, सो वि से न गिण्हते ताई। तो लभते इहरा पुण, यहां क्षेत्र का ग्रहण इसलिए किया गया है कि परक्षेत्र में भी तेसि मणुण्णाण साधारं। पूर्वसंस्तुत तथा पश्चात्संस्तुत यदि उसके पास व्रतग्रहण करने यदि सुखदुःख उपसंपन्न व्यक्ति के सहायक हैं और वह के लिए उसे अभिधारण करते हैं, आते हैं तो उसे परक्षेत्र में भी जिनके पास उपसंपन्न हुआ है उनका वैयावृत्त्य आदि कार्य वे लाभ होता है। जिसके पास भी वह उपसंपन्न होता है वह भी करते हैं तो जो प्रव्रज्या ग्रहण करने आता है वह उन्हें प्राप्त होता उसको (उसके लाभ को) ग्रहण नहीं करता। है। अन्यथा समनोज्ञ मुनियों का वह साधारण आभाव्य होता है। ३९८५. परखेत्ते वसमाणे वतिक्कमंतो व न लभतेऽसण्णी। ३९९१. अपुण्णा कप्पिया जे तू, अन्नोन्नमभिधारए। छंदेण पुव्वसण्णी, गाहित सम्मादि सो लभते॥ अन्नोन्नस्स य लाभो उ, तेसिं साधारणो भवे॥ परक्षेत्र में रहते हुए उस (सुखदुःखोपसंपन्न) के पास कोई जो अकल्पिक होते हैं वे अन्योन्य का अभिधारण करते हैं। असंही अर्थात् अपरिचित व्यक्ति दीक्षा ग्रहण करने आता है तो अन्योन्य का लाभ परस्पर साधारण होता है। वह लाभ क्षेत्रिक का होता है, उसका नहीं। जो पूर्वसंजी-पूर्वपरि- ३९९२. जाव एक्केक्कगो पुन्नो, ताव तं सारवेंति तु। चित होता है, उसे उसके अभिप्राय से प्राप्त कर लेता है। जिस कुलादिथेरगाणं वा, देंति जो वावि सम्मतो॥ किसी को इसने सम्यक्त्व प्राप्त कराई है और आज वह दीक्षित जब तक उन प्रत्येक का गच्छ पूर्ण नहीं हो जाता तब तक होना चाहता है तो वह उसी का लाभ है,उसे ही वह प्राप्त होता है। स्वीकृत गच्छ में से कोई एक उनकी सारणा करता है। यदि वे For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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