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दसवां उद्देश
३८६७. पच्छित्ते आदेसा, संकियनिस्संकिए च गहणादी । णु चउत्थे संकिय, गुरुगा निस्संकिए मूलं ॥ देहली के आगे प्रवेश करने पर स्तैन्य विषयक तथा चतुर्थ व्रत विषयक शंका होती है। उसमें शंकित और निःशंकित होने पर प्रायश्चित्त के दो आदेश-प्रकार हैं। शंकित होने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा निःशंकित होने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा शंका में ग्रहण आदि दोष होते हैं, जैसे३८६८. गेण्हण कढण ववहार, पच्छकडुड्डाह तह य निव्विसए ।
किणु हु इस इच्छा, अब्भिंतरअतिगते जीए॥ उसका ग्रहण होता है, लोक उसको पकड़ लेते हैं, पश्चात् राजकुल में ले जाते हैं। वहां व्यवहार न्यायाधीश के समक्ष उसको उपस्थित किया जाता है । पश्चात् कृतकरण अर्थात् उसको साधुव्रत से मुक्त कर दिया जाता है। उसे फिर देश से निकाल दिया जाता है। यह गृहांतर में चला गया। इसकी कोई न कोई इच्छा थी ।
३८६९. दुन्निविट्ठा व होज्जाही, अवाउडा वडगारी उ ।
लज्जिया सा वि होज्जाही, संका वा से समुब्भवे ॥ घर के भीतर गृहिणी अस्त-व्यस्त बैठी हो अथवा अप्रावृत-नग्न हो । वह साधु को सहसा प्रविष्ट देखकर लज्जित होती है। उसके मन में शंका उत्पन्न हो सकती है। ३८७०. किं मन्ने घेत्तुकामो, एस ममं जेण तत्तिए दूरं । अन्नो वा संकेज्जा, गुरुगा मूलं तु निस्संके ॥ ३८७१. आउत्थपरा वावी, उभयसमुत्था व होज्ज दोसा उ । उक्खणनिहणविरेगं, तत्थ व किंची करेज्जाही ॥ ३८७२. दिट्ठ एतेण इमं साहेज्जा मा तु एस अन्नेसिं । वि एसो ऊ, संका गहणादि कुज्जाही ।। वह सोचती है-क्या यह मुझे ग्रहण करने के लिए घर के भीतर इतनी दूर आया है। दूसरे व्यक्ति में भी ऐसी शंका हो सकती है। ऐसी शंका होने पर मुनि को चार गुरुमास का तथा निःशंकित होने पर मूल प्रायश्चित्त आता है। तथा आत्मोत्थ, परोत्थ अथवा उभय समुत्थ दोष होते हैं । गृहमध्य में गृहपति स्वर्ण आदि निधान का उत्खनन कर रहा हो अथवा निधान का परस्पर विरेचन (बंटवारा) कर रहा हो तो साधु को देखकर वह सोचता है - इस साधु ने मुझे उत्खनन करते हुए देख लिया है। यह दूसरों को यह बात न कह दे । अथवा यह चोर हो, इस शंका से वह उसे पकड़ता है, वध-बंधन आदि करता है। ३८७३. तित्थगरगिहत्थेहिं, दोहि वि अतिभूमिपविसणमदिण्णं ।
कीसे दूरमतिगतो, य संखडं बंध-वहमादी ।। तीर्थंकर तथा गृहस्थ (गृहस्वामी) - दोनों ने मुनि का अतिभूमी में प्रवेश निषिद्ध किया है। इसलिए मुनि अतिभूमी में
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प्रवेश न करे। यह मुनि किसलिए इतनी दूर आया है, यह सोचकर गृहस्वामी कलह कर सकता है, बंधन, वध आदि कर सकता है।
३८७४. खिंसेज्ज व जह एते, अलभंत वराग अंतो पविसंती ।
गल घेत्तूण वणम्मि, निच्छुभेज्जाहि बाहिरओ ।। गृहस्वामी उस साधु की अवहेलना करता हुआ सोचता है-इन बेचारों को कुछ प्राप्त नहीं होता। अतः ये घर में घुस आते हैं। वह गृहस्वामी उस मुनि को गले से पकड़कर बाहर ढकेल देता है।
३८७५. ताओ य अगारीओ, वीरल्लेणं व तासिता सउणी ।
उव्वेगं गच्छेज्जा, कुरूंडिओ नाम उवचरओ ॥ जैसे बाज से त्रस्त पक्षी उद्विग्न हो जाता है, वैसे ही साधु सहसा घर में प्रविष्ट हुआ देखकर घर की स्त्रियां उद्विग्न हो जाती हैं।
कुरंटित का अर्थ है-उपचारक । उपचारक अर्थात् कामचारक की आशंका से गृहस्थ उस साधु का वध - बंधन करते हैं। ३८७६. अधवा भणेज्जा एते, गिहिवासम्मि वि अदिकल्लाणा ।
दीणा अदिण्णदाणा, दोसे ते णाउ नो पविसे ॥ अथवा यह कहते हैं कि ये साधु गृहवास में भी अदृष्टकल्याण, दीन और अदत्तादान- चोर थे। ये सारे दोष होते हैं, यह जानकर मुनि गृहमध्य में प्रवेश न करे ।
३८७७. उंबरविक्खंभे विज्जति, दोसा अतिगयम्मि सविसेसा ।
तध वि अफलं न सुत्तं सुत्तनिवातो इमो जम्हा || यद्यपि देहली के उल्लंघन में दोष हैं, फिर भी घर के अतिगत अर्थात् मध्य में प्रवेश करने पर सविशेष दोष होते हैं। फिर भी सूत्र अफल नहीं होता। इसीलिए यह सूत्रनिपात है। ३८७८. उज्जाण घडा सत्थे, सेणा संवट्ट वय पवादी वा ।
बहिनिग्गमणे जपणे, भुंजति य जहिं पहियवग्गो ॥ औद्यानिका, घटाभोज्य (महत्तर- अनुमहत्तर आदि द्वारा नगर के बाहर की जाने वाली गोठ), सार्थ (वणिक् सार्थ) सेना - स्कंधावार, संवर्त - भय से एकत्रित हुए लोगों का समूह, व्रजिका - गोकुल, प्रपा, बहिर्निर्गमन कर यज्ञपाट आदि में जहां पथिक वर्ग भोजन करते हैं-इन स्थानों में प्रतिमा प्रतिपन्न साधक भिक्षा के लिए घूमता है ।
३८७९. पासट्ठितो एलुगमेत्तमेव पासति न वेतरे दोसा ।
निक्खमण-पवेसणे चिय, अचियत्तादी जढा एवं ||
साधक वहां जाकर एक पार्श्व में इस प्रकार खड़ा रहता है। कि केवल देहली मात्र दिखती है। इससे इतर दोष नहीं होते । निष्क्रमण और प्रवेश स्थान पर खड़े न रहने से अप्रीति आदि दोष भी इस प्रकार व्यक्त हो जाते हैं।
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