Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 394
________________ दसवां उद्देशक ३५५ स्नान आदि समवसरण में साधुओं का समागम होता है। विहरण करने योग्य, बहुत गच्छों के लिए उपग्रहकारी वृषभग्राम आने वाले मुनि अपने-अपने विवक्षित क्षेत्र की अनुज्ञापना कर हैं। वहां सीमा का निर्धारण कर रहना चाहिए। वहां प्राप्त होते हैं। वे सबको अपनी बात कहे उतना समय नहीं ३९५२. जहियं व तिन्नि गच्छा, पण्णरसुभया जणा परिवसंति। रहता। अतः सबको एकत्रित कर घोषणा करते हैं कि हमने अमुक एयं वसभक्खेत्तं, तव्विवरीयं भवे इतरं। क्षेत्र को वर्षावास के लिए अनुज्ञापित किया है। (वृषभक्षेत्र के दो प्रकार हैं-ऋतुबद्धकाल का तथा वर्षाकाल ३९४६. दाणादिसडकलियं सोऊणं तत्थ कोइ गच्छेज्जा। का। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट) रमणिज्जं खेत्तं ति य, धम्मकधालद्धिसंपन्नो। एक गच्छ में पांच मुनि जैसे-एक आचार्य तथा उनके साथ एक ३९४७. संथवकहाहि आउट्टिऊण अत्तीकरेति ते सड्ढे। मुनि तथा एक गणावच्छेदी तथा उनके साथ दो मुनि होते हैं। इस ते वि य तेसु परिणया, इतरे वि तहिं अणुप्पत्ता॥ प्रकार के तीन गच्छ अर्थात् पंद्रह मुनि रहते हैं। यह ऋतुबद्धकाल ३९४८. नीह त्ति तेहि भणिते, सड्ढे पुच्छंति ते वि य भणंति। का जघन्य वृषभक्षेत्र है। इससे विपरीत अन्य क्षेत्र होता है, अच्छह भंते दोण्ह वि, न तेसि इच्छाए सच्चित्तं॥ वृषभक्षेत्र नहीं। इस घोषणा को सुनकर कोई धर्मकथालब्धिसंपन्न मुनिवर्ग ३९५३. तुम्भंतो मम बाहिं, तुज्झ सचित्तं ममेतरं वावि। उस दानादि देने वाले श्राद्धों से परिपूर्ण उस रमणीय क्षेत्र में जाता आगंतुगवत्थव्वा, थी-पुरिसकुलेसु व विरेगो॥ है और परिचय तथा धर्मकथा से उन श्राद्धों को आकर्षित कर सीमा का निर्धारण-मूल गांव के मध्य जो सचित्त आदि का अपना बना लेता है। वे श्रावक भी उन साधुओं के प्रति परिणत लाभ हो वह तुम्हारा और बाहर जो लाभ हो वह हमारा। सचित्त हो जाते हैं। दूसरे क्षेत्रिक मुनि पूर्व आगत मुनियों के पश्चात् वहां का लाभ तुम्हारा और अन्य लाभ हमारा। आगंतुक तुम्हारे और पहुंचते हैं। वे क्षेत्रिक मुनि उन्हें कहते हैं-यहां से निर्गमन करो। वास्तव्य हमारे। स्त्रियों का लाभ (दीक्षित हों तो) तुम्हारा और यह कहने पर वे श्रावकों को पूछते हैं। तब से श्रावक कहते पुरुषों का लाभ हमारा अथवा अमुक कुलों में जो लाभ हो वह हैं-भंते! आप दोनों वर्ग यहां रहें। इस स्थिति में पूर्वागत मुनियों तुम्हारा और इन कुलों में जो लाभ हो, वह हमारा। की इच्छा से सचित्त आदि उनका आभाव्य नहीं होता। वह ३९५४. एवं सीमच्छेदं, करेंति साधारणम्मि खेत्तम्मि। क्षेत्रिक मुनियों का होता है। . पुव्वद्वितेसु जे पुण, पच्छा एज्जाहि अन्ने उ॥ ३९४९. असंथरणेऽणिताण, कुल-गण-संघे य होति ववहारो। इस प्रकार साधारण क्षेत्र में सीमा का निर्धारण करते हैं। केवतियं पुण खेत्तं, होति पमाणेण बोधव्वं॥ जो दूसरे मुनि पश्चात् आते हैं वे पूर्वस्थित मुनियों के साथ यह सभी मुनियों के असंस्तरण की स्थिति में वहां से निर्गमन निर्धारण करते हैं। न करने पर कुल, गण तथा संघ में व्यवहार-विवाद पहुंचता है ३९५५. खेत्ते उवसंपन्ना, ते सव्वे नियमसो उ नातव्वा। कि कितना क्षेत्रप्रमाण से बोद्धव्य है,अर्थात् उनका कितना क्षेत्र __ आभव्व तत्थ तेसिं, सच्चित्तादीण किं न भवे॥ आभाव्य होता है। वे सभी नियमतः क्षेत्र से उपसंपन्न है, ऐसा जानना चाहिए। ३९५०. एत्थ सकोसमकोसं, मूलनिबद्धं च गामऽणुमुयंतेण। उस क्षेत्र में उनके सचित्त आदि का आभाव्य होता है या नहीं? सच्चित्ते अच्चित्ते, मीसे य विदिण्णकालम्शि ३९५६. नाल पुर-पच्छसंथुय, मित्ता य वयंसया य सच्चित्ते। यहां क्षेत्र की मार्गणा में क्षेत्र सक्रोश अथवा अक्रोश होता . आहारमत्तगतिगं, संथारग वसधिमच्चित्ते। है। सक्रोश अर्थात् वह क्षेत्र जिसके चारों ओर गांव हों और ३९५७. उग्गहम्मि परे एयं, लभते उ अखेत्तिओ। अक्रोश अर्थात् जिसकी चारों दिशाओं में गमन और भिक्षाचर्या वत्थमादी वि दिन्नं तु, कारणम्मि वि सो लभे॥ संभव न हो। मूलनिबद्ध गांव अक्रोश हो और वह अनुज्ञात हो, तो नालबद्धपुरुष, पूर्वसंस्तुत-पश्चाद्संस्तुत, भिन्न तथा उस अनुज्ञात काल तक सचित्त, अचित्त और मिश्र में उनका वयस्य-ये सचित्त परकीय अवग्रह में अक्षेत्रिक को प्राप्त होते हैं अवग्रह होता है। उसको न छोड़ने पर भी वह उनका साधारण तथा अचित्त आहार, मात्रकत्रिक (उच्चारमात्रक, प्रस्रवण मात्रक आभाव्य क्षेत्र होता है। तथा खेलमात्रक), संस्तारक तथा वसति और दिया हुआ वस्त्र ३९५१. अत्थि हु वसहग्गामा, कुदेस-नगरोवमा सुहविहारो। तथा कारण में अदत्त वस्त्र का भी लाभ उसी को होता है। बहुगच्छुवग्गहकरा, सीमच्छेदेण वसियव्वं॥ ३९५८. दुविहा सुतोवसंपय, अभिधारेते तहा पढ़ते य। विवक्षित क्षेत्र के चारों ओर कुदेशनगरोपम, सुखपूर्वक एक्केक्का वि य दुविधा, अणंतर परंपरा चेव।। १. उत्कृष्ट वृषभ क्षेत्र-जहां ३२ हजार साधुओं का संस्तरण हाता है, जैसे ऋषभ के शासन में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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