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दसवां उद्देशक
३८३१. पगता अभिग्गहा खलु, एस उ दसमस्स होति संबंधो। पर्याय-जन्मपर्याय-जघन्यतः २९ वर्ष और उत्कृष्टतः
संखा य समणुवत्तइ, आहारे वावि अधिगारो॥ देशोनपूर्वकोटि। प्रव्रज्यापर्याय-जघन्यतः २० वर्ष और पूर्व सूत्रों में अभिग्रह प्रकृत थे। प्रस्तुत दसवें उद्देशक में भी उत्कृष्टतः देशोनपूर्वकोटि। सूत्रार्थ-जघन्यतः नौवें पूर्व की तीसरी उनका ही अधिकार है। यह सूत्र का संबंध है। अथवा पूर्वसूत्र में आचार वस्तु तथा उत्कृष्टतः किंचिद् न्यून दशपूर्व। आहार विषयक संख्या का निर्देश था। प्रस्तुत में भी उसी का इस प्रकार जो बलवान् होता है, वह यवमध्य और अनुवर्तन है। अतः आहारविषयक संख्या से संबंधित दसवें वज्रमध्य प्रतिमा को स्वीकार करता है। उद्देशक का अधिकार है-प्रवृत्ति है।
३८३७. निच्चं दिया व रातो, पडिमाकालो य जत्तिओ भणितो। ३८३२. जवमज्झ वइरमज्झा, वोसट्ठ चियत्त तिविह तीहिं तु।
दव्वम्मि य भावम्मि य, वोसटुं तत्थिमं दव्वे॥ दुविधे वि सहति सम्मं, अण्णउंछे य निक्खेवो। प्रतिमा साधक सदा दिन और रात अथवा जितना
यवमध्य, वज्रमध्य, व्युत्सृष्ट, त्यक्त, त्रिविध तीनों, प्रतिमाकाल कहा गया है, उतने काल तक द्रव्य और भाव से वह द्विविध, सहन करता है सम्यक्, अज्ञातोंछ का निक्षेप। (विस्तृत व्युत्सृष्टकाय होता है। द्रव्यतः व्युत्सृष्टकाय यह हैव्याख्या अगले श्लोकों में।)
३८३८. असिणाण भूमिसयणा,अविभूसा कुलवधू पउत्थधवा। ३८३३. उवमा जवेण चंदेण, वावि जवमज्झ चंदपडिमाए। ___ रक्खति पतिस्स सेज्जं, अणिकामा दव्ववोसट्ठो।।
एमेव य बितियाए, वइरं वज्जं ति एगहूँ। प्रोषितपति-परदेश गए हुए पति वाली कुलवधू स्नान नहीं
यव और चंद्र से उपमित तथा यव की तरह मध्य वाली करती, भूमीशयन करती है, विभूषा नहीं करती, वह अनिकाम चंद्राकार प्रतिमा यवमध्यचंद्रप्रतिमा कहलाती है। इसी प्रकार होकर पति की शय्या की रक्षा करती है-यह द्रव्यतः व्युत्सृष्ट है। वज्रमध्य चंद्राकार प्रतिमा व्रजमध्यचंद्रप्रतिमा कहलाती है। ३८३९. वातिय-पित्तिय-सिंमियरोगातंकेहि तत्थ पुट्ठो वि। 'वइर' और वज्र-एकार्थक हैं।
न कुणति परिकम्मं सो, किंचि वि वोसट्ठदेहो उ॥ ३८३४. पण्णरसे व उ काउं, भागे ससिणं तु सुक्कपक्खस्स। इसी प्रकार जो प्रतिमासाधक वातिक, पैतिक, श्लेष्मिक
जा वड्डयते दत्ती, हावति ता चेव कालेण॥ रोग तथा आतंक से स्पृष्ट होने पर भी कुछ भी परिकर्म नहीं करता
शुक्लपक्ष के पन्द्रह भाग करने पर चंद्रमा की प्रतिदिन वह भावतः व्युत्सृष्टकाय है। एक-एक कला बढ़ती है। इसी प्रकार जो दत्तियां बढ़ती हैं, वे ३८४०. जुद्धपराजिय अट्टण, फलही मल्ले निरुत्त परिकम्मे। काल अर्थात् कृष्णपक्ष में क्रमशः घटती जाती हैं।
गृहण मच्छियमल्ले, ततियदिणे दव्वतो चत्तो।। ३८३५. भत्तट्ठितो व खमओ, इयरदिणे तासि होति पट्ठवओ। अट्टन मल्ल मल्लयुद्ध में पराजित हो गया। फलिह मल्ल
चरिमे असद्धवं पुण, होति अभत्तट्ठमुज्जवणं॥ को उसने तैयार किया। उसने मात्सिकमल्ल के साथ त्रिदिवसीय यवमध्य और वज्रमध्य प्रतिमा इन दोनों का प्रस्थापक मल्लयुद्ध आयोजित किया। प्रत्येक दिन के मल्लयुद्ध के पश्चात् मुनि आरंभदिवस तथा अंतिमदिन भक्तार्थी अथवा क्षपक होता है। फलिहमल्ल अपने शरीर का निरुक्त-निरवशेष परिकर्म करता चरमदिवस में वह भक्तविषय में श्रद्धा भी नहीं करता। दोनों प्रकार था और मात्सिकमल्ल गर्व के कारण शारीरिक पीड़ा को छुपाता की प्रतिमाओं का उद्यापन अभक्तार्थ होता है।
हुआ कोई परिकर्म नहीं करता था। तीसरे दिन वह हार गया, मर ३८३६. संघयणे परियाए, सुत्ते अत्थे य जो भवे बलिओ।। गया। यह द्रव्यतः त्यक्त का उदाहरण है।
सो पडिमं पडिवज्जति, जवमज्झं वइरमज्झं च॥ ३८४१. बंधेज्ज व रुंभेज्ज व, कोई व हणेज्ज अधव मारेज्ज। इन प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाले साधकों का
वारेति न सो भगवं, चियत्तदेहो अपडिबद्धो॥ संहनन-प्रथम तीन संहननों में से कोई एक।
प्रतिमा प्रतिपन्न भगवान् मुनि देह के प्रति अप्रतिबद्ध होता
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