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सानुवाद व्यवहारभाष्य
के निर्माण की सिद्धि होती है। ३६९९. सिद्धीपासायवडेंसगस्स करणं चउव्विधं होति।
दव्वे खेत्ते काले, भावे य न संकिलेसेति॥ सिद्धिरूपी महान् रमणीय प्रासाद का निर्माण चार प्रकार का होता है-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः और भावतः। गीतार्थ आचार्य साधुओं को क्लेश नहीं पहुंचाता। ३७००. एवं तु निम्मवेंती, ते वी अचिरेण सिद्धिपासादं।
तेसिं पि इमो उ विधी, अहारेयव्वए होति॥
इस प्रकार संक्लेश न देने के कारण वे साधु शीघ्र ही सिद्धिरूप प्रासाद का निर्माण कर लेते हैं। उनकी भोजन विधि इस प्रकार है३७०१. अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए।
वायपवियारणट्ठा, छब्भागं ऊणयं कुज्जा। भोजन के समय उदर का आधाभाग व्यंजनसहित आहार के लिए रखे तथा दो भाग द्रव के लिए रखे। वायु के विचरण के लिए छठा भाग रखे, आहार कम करे। (तात्पर्यार्थ यह है-उदर के छह भाग करें-तीन भाग अशन के लिए, दो भाग पानी के लिए
और छठा भाग वायु के विचरण के लिए यह साधारण नियम है। वर्षावास-चार भाग सव्यंजन अशन के लिए, पांचवां भाग पानी के लिए छठा भाग वायु के विचरण के लिए। ग्रीष्मकाल में दो भाग अशन के लिए, तीन भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु के लिए) ३७०२. एसो आहारविधी, जध भणितो सव्वभावदंसीहिं।
धम्माऽवस्सगजोगा, जेण न हायंति तं कुज्जा।
सर्वभावदर्शी तीर्थंकरों ने यह आहार विधि कही है। धर्म के निमित्त जो आवश्यक योग करने होते हैं, वे न्यून न हों, उस प्रकार आहार करें।
आठवां उद्देशक समाप्त
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