Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 380
________________ नौवां उद्देशक ३४१ में क्या परिणाम है-इस प्रश्न के अवकाश में प्रतिमासूत्र का उपन्यास किया गया है। यह प्रतिमासूत्र से संबंध है। ३७७८. अधसुत्त सुत्तदेसा, कप्पो उ विहीय मग्गनाणादी। तच्चं तु भवे तत्थं, सम्मं जं अपरितंतेणं॥ ३७७९. फासियजोगतिएणं, पालियमविराधि सोहिते चेव। तीरितमंतं पाविय, किट्टिय गुरुकधण जिणमाणा॥ इन श्लोकों में प्रयुक्त शब्दों की व्याख्यायथासूत्र-सूत्र के आदेश के अनुसार। यथाकल्प-विधि के अनुसार। यथामार्ग-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अविराधनापूर्वक। यथातथ्य-एकांततः सूत्र के अनुसार। यथासम्यग् सम्यक्करण, तीनों योगो की अपरिताम्यता। स्पर्शित-सेवित। अविराधित-विराधना रहित। शोधित-अतिचार के लेश से भी अकलंकित। तीरित-परिपूर्णरूप से पालित। कीर्तित-आचार्य को निवेदित करना कि मैंने प्रतिमा संपन्न कर ली है। आज्ञा-जिनेश्वर की आज्ञा से पालित। ३७८०. पडिमा उ, पुव्वभणिता, पडिवज्जति को तिसंघयणमादी। नवरं पुण नाणत्तं, कालच्छेदे य भिक्खासु॥ प्रतिमाओं का कथन पहले हो चुका है। इनको कौन स्वीकार करता है, इसके उत्तर में कहा गया कि प्रथम तीन संहननवाले इसे स्वीकार करते हैं। इसमें नानात्व यही है कि भिक्षा में कालच्छेद होता है। ३७८१. एगूणपण्णे चउसट्ठिगासीती सयं च बोधव्वं । सव्वासिं पडिमाणं, कालो एसो त्ति तो होति ।। चार सूत्रों में वर्णित सभी प्रतिमाओं का इतना ही काल होता है सप्तसप्ततिका प्रतिमा का कालमान-४९ रातदिन। अष्टाअष्टकिका प्रतिमा का कालमान-६४ रातदिन। नवनवकिका प्रतिमा का कालमान -८१ रातदिन। दसदसकिका प्रतिमा का कालमान-१०० रातदिन। ३७८२. पढमा सत्तिगासत्त, पढमे तत्थ सत्तए। एक्केक्कं गेण्हती भिक्खं, बितिए दोण्णि दोण्णि उ॥ ३७८३. एवमेक्केक्कियं भिक्खं, छुब्भेज्जेक्केक्क सत्तगे। गिण्हती अंतिमे जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे॥ प्रथम प्रतिमा सप्तसप्तकिका के प्रथम सप्तक में प्रतिदिन एक-एक भिक्षा का ग्रहण होता है। दूसरे सप्तक में प्रतिदिन दो-दो भिक्षाओं का ग्रहण होता है। इस प्रकार प्रतिसप्तक में एक-एक भिक्षा का अधिक प्रक्षेप कर अंतिम सप्तक में प्रतिदिन सात-सात भिक्षाओं का ग्रहण होता है। ३७८४. अहवेक्केक्कियं दत्ती, जा सत्तेक्केक्कसत्तए। आदेसो अत्थि एसो वि, सीहविक्कमसन्निभो।। अथवा प्रतिसप्तक में प्रत्येक दिन एक-एक भिक्षा (दत्ति) की वृद्धि कर सातवें दिन सात भिक्षाएं ग्रहण करे। प्रत्येक सप्लक की यही विधि है। यह दूसरा आदेश (मंतव्य) सिंह- विक्रमसंनिभ कहलाता है। (जैसे सिंह चलते-चलते बार-बार मुड़ कर देखता है, इसी प्रकार इसमें भी प्रतिसप्तक मूल का परावर्तन होता है। यह कालच्छेद संपन्न हुआ।) ३७८५. छण्णउयं भिक्खसतं, अट्ठासीता य दो सया होति। पंचुत्तरा य चउरो, अद्धच्छट्ठा सया चेव ।। सप्तसप्तकिका में भिक्षा परिमाण है १९६, अष्ट-अष्टकिका में २८८, नवनवकिका में ४०५ तथा दशदशकिका में ५५०। ३७८६. उद्दिट्ठवग्गदिवसा, य मूलदिणसंजुया दुहा छिन्ना। मूलेणं संगुणिया, माणं दत्तीण पडिमासु।। उद्दिष्ट वर्ग के दिनों को मूल दिनों से संयुत कर, द्विधा छिन्न अर्थात् आधाकर, मूल दिनों से गुणन करे। गुणनफल उस प्रतिमा के दत्तियों का परिमाण होगा। ३७८७. पदगयसु वेयसुत्तरसमायं दलियमादिणा सहियं। गच्छगुणं पडिमाणं, भिक्खामाणं मुणेयव्वं ।। वृत्तिकार ने इसकी कोई व्याख्या नहीं की है। उन्होंने दोनों गाथाओं (३७८६ तथा ३७८७) के लिए इतना मात्र लिखा है-भिक्षा परिमाणस्यानयनाय करणमाह३७८८. गच्छुत्तरसंवग्गे, उत्तरहीणम्मि पक्खिवे आदि। अंतिमधणमादिजुयं, गच्छद्धगुणं तु सव्वधणं ।। प्रकारांतर-गच्छ को उत्तर से गुणित करे, फिर उसको उत्तर से हीनकर आदि का प्रक्षेप करे। उससे अंतिमधन आता है। उसको आदियुत करे। फिर गच्छार्द्ध से गुणन करने पर सर्वधन १. तीसरा संहनन आर्यरक्षित तक अनुवृत्त था। फिर उसका व्यवच्छेद हो गया। २. जैसे-उद्दिष्टवर्ग सप्तसप्तकिका। इसके दिन हुए ७४७= ४९। उसमें मूल दिन संयुत करने पर हुई ५६। उनका आधा है २८ । मूल दिनों अर्थात् ७ से गुणन करने पर १९६ संख्या आई। यही इसकी दत्तियों का परिमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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