Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 372
________________ आठवां उद्देशक ३३३ है, अल्पाहार है। छह मास तक पारणक में एक-एक सिक्थ कम ३६९४. भावे न देति विस्सामं, निट्ठरेहिं च खिंसति। करते हुए यावत् बत्तीस कवल। जिज्ञासु का वचन। यहां प्रासाद जियं भतिं च नो देति, नट्ठा अकयदंडणा॥ का दृष्टांत होता है। (इसकी व्याख्या आगे की गाथाओं में।) द्रव्य से उन कर्मकरों को अलवणयुक्त, असंस्कारित तथा ३६८६. छम्मासखवणंतम्मि, सित्थादण्हातु लंबणं। शुष्क चनक आदि का भोजन भी अपर्याप्त मात्रा में देता था। क्षेत्र तत्तो लंबणवड्डीए, जावेक्कतीस संथरे॥ से-जो उस क्षेत्र में अनुचित भक्तपान होता, वह देता था। काल छह महीने की तपस्या के पारणक में एक सिक्थ से प्रारंभ से-गर्मी के काल में काम करवाता और उत्सूर ( ) में भोजन कर एक लंबन कवल तक ले जाए। फिर कवल की वृद्धि करते देता था। भावतः वह कर्मकरों को विश्राम के लिए अवकाश नहीं हुए इकतीस कवलों से अपना निर्वाह करे।। देता था। वह निष्ठुर वचनों से उनका तिरस्कार करता था। वह ३६८७. एक्कमेक्कं तु हावेत्ता, दिणं पुव्वेक्कमेव उ। उन कर्मकरों को उनकी वृत्ति भी नहीं चुकाता था। इन सबसे दिणे दिणे उ सित्थादी, जावेक्कतीस संथरे॥ पीड़ित होकर वे सारे कर्मकर प्रासाद का निर्माण संपन्न किए बिना इसी प्रकार पूर्वक्रम से एक-एक कवल की हानि करते हुए, पलायन कर गए। राजा ने फिर अमात्य को दंडित किया, उसे फिर एक-एक सिक्थ की कमी करते हुए इकतीस कवलों की हानि अमात्यपद से हटा दिया। कर अपना निर्वाह करे। ३६९५. अकरणे पासायस्स उ, ३६८८. पगामं होति बत्तीसा, निकामं जं तु निच्चसो। जह सोऽमच्चो तु दंडितो रण्णा। दुप्पविजया तेसु, गेही भवति वज्जिया।। एमेव य आयरिए, बत्तीस कवल का आहार प्रकाम माना जाता है। उतना उवणयणं होति कातव्वं ॥ प्रतिदिन खाना निकाम कहलाता है। जो इन दोनों का त्याग करता प्रासाद के निर्माण को पूर्ण न करने पर राजा ने उस अमात्य है, उसकी गृद्धि वर्जित होती है। को दंडित किया। इसी प्रकार आचार्य पर इस कथन का उपनयन ३६८९. अप्पावड्दुभागोम, देसणं नाममेत्तगं नामं। करना चाहिए। पतिदिणमेक्कत्तीसं, आहारेह त्ति जं भणह।। (राजा स्थानीय हैं तीर्थंकर। अमात्य स्थानीय हैं आचार्य। यदि यह कहा जाता है कि प्रतिदिन इकतीस कवल आहार सिद्धि रूपी प्रासाद की साधना के लिए उनको आदेश दिया गया करना चाहिए तो फिर अल्प, अपार्ध, द्विभाग, अवमौदर्य आदि है। वे कर्मकर स्थानीय साधुओं के साथ इस प्रकार का व्यवहार का उपदेश नाममात्र होगा। यह जिज्ञासु का प्रश्न था। करते हैं कि वे सब पलायन कर जाएं।) ३६९०. भण्णति अप्पाहारादओ समत्थस्सऽभिग्गहविसेसा। ३६९६. कज्जम्मि वि नो विगतिं,ददाति अंतं न तं च पज्जत्तं। चंदायणादओ विव, सुत्तनिवातो पगामम्मि॥ खेत्ते खलु खेत्तादी, कुवसहिउब्भामगे चेव।। आचार्य कहते हैं-अल्पाहार आदि का कथन समर्थ के लिए ३६९७. ततियाए देति काले, ओमे वुस्सग्ग वादिओ निच्चं। तथा अभिग्रहविशेष चंद्रायण आदि से संबंधित है। यह सूत्रनिपात संगहउवग्गहे वि य, न कुणति भावे पयंडो य॥ है। अंतिम है-प्रकाम, निकाम भोजन का निषेध करने वाला। आचार्य प्रयोजन होने पर भी साधुओं को विकृति (घी आदि) ३६९१. अप्पाहारग्गहणं, जेण य आवस्सयाण परिहाणी। लेने की आज्ञा नहीं देते। आहार भी अंत-प्रांत और वह भी अपर्याप्त न वि जायति तम्मत्तं, आहारेयव्वयं नियमा॥ रूप में देते हैं। क्षेत्रतः साधुओं को ऐसे क्षेत्र में भेजते हैं जो केवल अल्पाहार का ग्रहण इसलिए है कि मुनि को उतना मात्र नाममात्र के क्षेत्र हैं, कुवसति में अथवा उद्भ्रामक ग्राम में भेजते आहार नियमतः ग्रहण करना चाहिए जितने मात्र से आवश्यक हैं। कालतः तीसरे प्रहर में भोजन देते हैं। भावतः वे दुर्भिक्ष अथवा योगों की हानि न हो। व्युत्सर्ग में अथवा वादकाल में, सदा ज्ञान आदि के संग्रहण में ३६९२. दिढतोऽमच्चेणं, पासादेणं तु रायसंदिढे। तथा वस्त्र, पात्र आदि से उपग्रह-उपकार नहीं करते तथा वे दव्वे खेते काले, भावेण य संकिलेसेति॥ प्रचंड कोपनशील हैं। प्रासाद का दृष्टांत है। एक राजा ने अमात्य को प्रासाद ३६९८. लोए लोउत्तरे चेव, दो वि एते असाहगा । बनाने के लिए आदेश दिया। अमात्य द्रव्यलोभी था। वह द्रव्य, विवरीयवत्तिणो सिद्धी, अन्ने दो वि य साहगा।। क्षेत्र, काल और भाव से कर्मकरों को क्लेश देता था। प्रस्तुत दोनों (अमात्य और आचार्य) लोक और लोकोत्तर ३६९३. अलोणाऽसक्कयं सुक्खं, नो पगामं व दव्वतो। के असाधक होते हैं। इनसे विपरीतवर्ती अन्य दोनों द्रव्यतः और तं खेत्ताणुचियं उण्हे, काले उस्सूरभोयणं॥ भावतः साधक होते हैं। आचार्य को सिद्धि और अन्य को प्रासाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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