Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 370
________________ आठवां उद्देशक ३३१ ३६६२. उद्दिट्ठमणुद्दिढे उद्दिट्ठ समाणयम्मि पेसंति। ३६६७. समुदाण चरिगाण व, भीतो गिहिपंत तक्कारणं वा। वायंति वणुण्णायं, कडं पडिच्छंति उ पडिच्छं।। __णीउवधिं सो तेणो, पविट्ठ वुत्थे वि न विहम्मे ।। प्रातीच्छिक को पूछा जाता है-श्रुतस्कंधादि उद्दिष्ट हैं अथवा जो समुदान (भैक्ष) के भय से तथा चारिका के भय से तथा अनुदिष्ट। यदि उद्दिष्ट हैं फिर भी वह आता है, तो उसे उन्हीं गृहस्थप्रांत तथा तस्करों के भय से उपधि को लेकर उपधि सहित आचार्य के पास भेज देते हैं। यदि वे आचार्य यह कहें कि तुम ही संविग्न अथवा असंविग्न के उपाश्रय में प्रवेश करता है, वहां रहता इसको वाचना दो तो उनके द्वारा अनुज्ञात होकर वे वाचना देते है तो भी उसके उपकरणों का उपहनन नहीं होता। (क्योंकि वह हैं। श्रुतस्कंध आदि समाप्त करने पर उस प्रातीच्छक को स्वीकार उस उपधि से समन्वित भावतः गृहस्थ ही है।) कर लेते हैं। ३६६८. नीसंको वणुसिट्ठो, नीहुवहिमयं अहं खु ओहामी। ३६६३. एवं ताव विहारे, लिंगोधावी वि होति एमेव। संविग्गाण य गहणं, इतरेहि विजाणगा गेण्हे। सो पुण संकिमसंकी, संकिविहारे य एगगमो।। अथवा निःशंक रूप से जाता हुआ संविग्न या असंविग्न से इस प्रकार विहारावधावी का कथन किया है। लिंगावधावी । अनुशिष्ट होने पर वह कहता है-यह उपधि उनके पास ले जाओ भी इसी प्रकार होता है। वह दो प्रकार का है--शंकी, अशंकी। मैं निश्चित ही आवधावन करूंगा। वह यदि संविग्नों के हाथ से शंकी लिंगावधावी तथा विहारावधावी-इन दोनों का एक ही गम उपधि भेजता है तो उसका ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि इतर है अर्थात् जो विहारावधावी के लिए कहा है वही शंकी लिंगावधावी अर्थात् अगीतार्थ के हाथों उपधि भेजता है और सब गीतार्थ हों तो के लिए वक्तव्य है। उसे ग्रहण कर लेते हैं। ३६६९. नीसंकितो वि गंतूण, दोहि वि वग्गेहि चोदितो एती। ३६६४. संविग्गमसंविग्गे, संकमसंकाए परिणतविवेगो। तक्खण णित हम्मे, तहिं परिणतस्स उवहम्मे ।। ___पडिलेहण निक्खिवणं, अप्पणो अट्ठाय अन्नेसिं।। निःशंकित भी दोनों वर्गों-संविग्न अथवा असंविग्न के द्वारा यदि शंकी अथवा अशंकी संविग्न अथवा असंविग्न के रूप अनुशासन प्राप्त कर उनके उपाश्रय में जाकर तत्काल वहां से में परिणत हो जाता है तो उसके उपकरणों का परिष्ठापन कर देना निर्गमन कर देता है तो उसके उपकरण का उपहनन नहीं किया चाहिए। वह सोचता है-ये उपकरण मेरे लिए अथवा दूसरों के जाता। यदि वहां रहने का उसका परिणाम हो जाता है तब भी लिए होंगे, यह सोचकर वह उन उपकरणों का यतनापूर्वक उसके उपधि का उपहनन हो जाता है। - प्रतिलेखन तथा निक्षेपण करता है। ३६७०. अत्तट्ठ परट्ठा वा, पडिलेहिय रक्खितो वि उन हम्मे। ३६६५. घेत्तूणऽगारलिंगं, वती व अवती व जो उ ओधावी। एवं तस्स उ नवरिं, पवेस वइयादिसू भयणा॥ __ तस्स कडिपट्टदाणं, वत्थु वासज्ज जं जोग्गं ।। वह उपकरणों का स्वयं के लिए अथवा दूसरों के लिए लिंगावधावी दो प्रकार का होता है-अगारलिंग से अवधावी यतनापूर्वक प्रतिलेखन करता है, उनका संरक्षण करता है तो तथा स्वलिंगसहित अवधावी। जो आयारलिंग से अवधावन करता उसके उन उपकरणों का उपहनन नहीं होता। विशेष यह है कि है वह व्रती अथवा अवती हो सकता है। उसको कटिपट्टक देना लौटते हुए वह वजिका आदि में प्रवेश करता है तो उपकरणों के चाहिए तथा जो वस्तु उसके योग्य हो, वह देनी चाहिए। उपहनन की भजना है। ३६६६. जइ जीविहिंति जइ वा वि, ३६७१. अध पुण तेणुवजीवति, सारूविय-सिद्धपुत्तलिंगीणं। तं धणं धरति जइव वोच्छंति। __ केइ भणंतुवहम्मति, चरणाभावा तु तन्न भवे॥ लिंगं मोच्छिति संका, यदि वह प्रतिनिवृत्त नहीं होता किंतु उसी लिंग से पविट्ठ वुच्छेव उवहम्मे॥ जीवन-भिक्षा आदि चलाता है अर्थात् सारूपिकत्व अथवा सिद्धस्वलिंग सहित अवधावन करने वाले दो प्रकार के होते पुत्रत्व रूप से स्थित होता है तो क्या उस स्थिति में उत्पादित हैं-शंकी तथा अशंकी। अशंकी यह सोचता है-यदि मेरे स्वजन उपकरणों का उपहनन होता है या नहीं? कुछ कहते हैं-चारित्र के जीवित होंगे, यदि धन धारण करते हैं अथवा यदि धन है और अभाव में उपधि का उपहनन अथवा अनुपहनन का प्रसंग ही नहीं यदि वे मुझे लिंग को छोड़ने के लिए कहेंगे तब मैं उन्निष्क्रमण आता। करूंगा, इस प्रकार की शंकावाला मुनि किसी के द्वारा अनुशासित ३६७२. सो पुण पच्चुट्टित्तो, जदि तं से उवहतं तु उवगरणं । होकर संविग्न अथवा असंविग्न मुनियों के उपाश्रय में प्रवेश करता असतीय व तो अन्नं, उग्गोवेंति त्ति गीतत्थो।। है तो उसके उपकरणों का उपहनन किया जाता है। वह पुनः संयम के लिए उत्थित हो गया और यदि उसके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

Loading...

Page Navigation
1 ... 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492