Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 369
________________ ३३० सानुवाद व्यवहारभाष्य ग हैं-अशिवादिकारणिक तथा औपदेशिक हिंडक।' हाथी के लिए अंकुश सदृश अठारह स्थानों की बात बताते हैं। ३६४९. निक्कारणिएऽणुवदेसिए य आपुच्छिऊण वच्चंते।। ३६५६. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय-सिद्धपुत्तमणुसिढे। अणुसासंति उ ताधे, वसभा उ तहिं इमेहिं तु॥ आगमणं आणयणं, तं वा घेत्तुं न इच्छंति॥ यदि निष्कारणिक तथा अनौपदेशिक आचार्य को पूछकर संविग्न, असंविग्न, सारूपिक, सिद्धपुत्र आदि उनको जाते हैं तो वृषभ इन वचनों से उन पर अनुशासन करते हैं- अनुशासन देते हैं। यदि वे आ जाते हैं अथवा संविग्न आदि उन्हें ३६५०. एसेव चेइयाणं, भत्तिगतो जो तवम्मि उज्जमती। लेकर आते हैं अथवा वे आना नहीं चाहते तो उनकी विधि यह है। इति अणुसिढे अठिते, असंभोगायारभंडं तु॥ ३६५७. संविग्गाण सगासे, वुत्थो तहिं अणुसासिय नियत्तो। वही चैत्यों की भक्ति के लिए उपनत है (भक्तिगत है) जो लहुगो नोवहम्मती, इतरे लहुगा उवहतो य॥ तपस्या में उद्यम करता है। यदि इस प्रकार अनुशासित होने पर संविग्नों के पास रहकर, उनके अनुशासन को मानकर वह वह नहीं रुकता है तो उससे सांभोगिक उपकरण लेकर उसको निवर्तन करता है तो उसका प्रायश्चित्त है लघुमास। उसके उपधि असंभोगिक आचार भांड समर्पित किया जाता है। का उपहनन नहीं होता। जो असंविग्न आदि के समीप रहकर ३६५१. खग्गूडेणोवहतं, अमणुण्णे सागयस्स वा जं तु। उनके अनुशासन को मानकर निवर्तन करता है उसके चार लघुमास असंभोगिय उवकरणं, इहरा गच्छे तगं नत्थि।। का प्रायश्चित्त तथा उपकरणों का उपहनन होता है। जो उपकरण खग्गूड-स्वच्छंद व्यक्ति द्वारा उपहत है, ३६५८. संविग्गादणुसिट्ठो,तद्दिवसनियत्तो जइ विन मिलेज्जा। अमनोज्ञ मुनियों से आया हुआ है, वह असांभोगिक उपकरण न य सज्जति वइयादिसु, चिरेण वि हु तो न उवहम्मे॥ (आचारभांड) है। इतरथा-प्रकारद्वय से व्यतिरिक्त दूसरा यदि संविग्नों के द्वारा अनुशिष्ट है और उसी दिन प्रतिनिवृत्त आसांभोगिक उपकरण गच्छ में नहीं है। हो गया है किंतु उसी दिन (गच्छ में) नहीं मिला है, जिका ३६५२. तिट्ठाणे संवेगे, सावेक्खो निवत्त तद्दिवसपुच्छा। आदि में नहीं गया है और वह चिरकाल के बाद भी आता है तो मासो वुच्छ विवेचण, तं चेवऽणुसट्ठिमादीणि॥ उसके उपकरणों का उपहनन नहीं होता। गच्छनिर्गत व्यक्ति को तीन स्थानों (ज्ञान, दर्शन और ३६५९. एगाणियस्स सुवणे, मासो उवहम्मते य सो उवधी। चारित्र) से संवेग प्राप्त हो सकता है और वह सापेक्ष होकर तेण परं चउलहुगा, आवज्जति जं च तं सव्वं ॥ प्रतिनिवर्तन करता है। यदि उसी दिन लौट आता है तो वह शुद्ध यदि वह एकाकी आता है, रात को सोता है तो उसे एक है। यदि मास तक बाहर रहकर आता है तो उसके उपकरणों का लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा उसके उपधि का उपहनन परिष्ठापन, प्रायश्चित्तदान तथा अनुशिष्टि आदि दी जाती है। होता है। यदि दस दिन के पश्चात् अन्य दिन लगते हैं तो प्रायश्चित्त ३६५३. अज्जेव पाडिपुच्छं, को दाहिति संकियस्स मे उभए। दंसणे कं उववूहे, किं थिरकरे कस्स वच्छल्लं॥ है चार लघुमास का और वह यदि व्रजिका आदि में जाता है तो ३६५४. सारेहिति सीदंतं, चरणे सोहिं च काहिती को मे। उसके निमित्त से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। एव नियत्तऽणुलोमं काउं, उवहिं च तं देती। ३६६०. संविग्गेहणुसिट्ठो, भणेज्ज जइ हं इहेव अच्छामि। आज ही सूत्र और अर्थ-दोनों के विषय में मेरी शंका का भण्णति ते आपुच्छसु, अणिच्छ तेसिं निवेदेति ॥ कौन प्रतिपृच्छा-समाधान करेगा-यह ज्ञान विषयक चिंतना है। ३६६१. सो पुण पडिच्छओ वा,सीसे वा तस्स निग्गतो जत्तो। दर्शन में मैं किसका उपबृंहण, स्थिरीकरण और वात्सल्य सीसं समणुण्णातं, गेण्हतितरम्मि भयणा उ॥ करूंगा। चारित्र में शिथिल हुए मुझको कौन दृढ़ करेगा? कौन संविग्नों से अनुशासित होकर यदि वह कहता है कि मैं प्रायश्चित्त स्थान को प्राप्त मेरी शोधि करेगा? इस प्रकार सोचकर आपके पास रहूंगा। तब उसे कहे-तुम अपने आचार्य को पूछो। वह गच्छ में प्रतिनिवर्तन करता है। उसको अनुलोम वचन कहकर यदि वह पूछना नहीं चाहता तो वे स्वयं आचार्य को निवेदन करते उसको वही उपधि देते है। हैं। वह निर्गत मुनि उन आचार्यों का शिष्य अथवा प्रातीच्छक हो ३६५५. दुविधोधाविय वसभा, सारेति भयाणि व से साहिंती। सकता है। यदि शिष्य हो और आचार्य उन संविग्नों के निवेदन का अद्वारसठाणाई. हयरस्सिगयंकसनिभाई। अनुमोदन करते हैं तब उस मुनि को वे स्वीकार कर लेते हैं दोनों प्रकार के अवधावियों को वृषभ शिक्षा देते हैं, होने अन्यथा नहीं। और यदि वह निर्गत मुनि उन आचार्यों का वाले भयों की अवगति देते हैं। उन्हें अश्व के लिए लगाम और प्रातीच्छक हो तो उसके विषय में भजना है। १. इन दो के द्वारा आनीत पात्र लिए जा सकते हैं। शेष की भजना है। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492