Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 368
________________ आठवां उद्देशक का) आता है। ३६३८. अाण ओम असिवे, उढाण विन देति जं पावे। बालस्सऽज्झोवाते, थेरस्सऽसतीय जं कुज्जा ॥ जो अध्वनिर्गत, अबमौर्यनिर्गत, अशिवनिर्गत, पानी से प्लावित हैं उनको पात्र नहीं देने पर चार लघुमास का प्रायश्चित आता है। सुंदर पात्र को देखकर बालक उसके प्रति अत्यधिक आसक्त हो जाता है। वृद्ध को पात्र न देने पर उसमें अधृति होती है इन सबसे निष्पन्न प्रायश्चित्त भी प्राप्त होता है। ३६३९. अतरंतस्स अदेंते, तप्पडियरगस्स दावि जा हाणी । जुंगित पुव्वनिसिद्धो, जाति विदेसेतरो पच्छा ॥ ग्लान और परिचारक को पात्र न देने पर चारलघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा पात्र के बिना होने वाली हानि के निमित्त का प्रायश्चित्त भी प्राप्त होता है। जुंगित का पहले ही निषेध किया जा चुका है। जो जाति से जुंगित है उसे विदेश में (अज्ञाततया ) प्रबजित किया गया है अथवा जो प्रब्रजित होने के पश्चात शरीर से जुंगित हुआ है। ३६४०. जातीय जुंगितो पुण, जत्थ न नज्जति तहिं तु सो अच्छे । अमुगनिमित्तं विगलो, इतरो जहि नज्जति तहिं तु ॥ जो जाति से जुंगित है और वह जहां नहीं पहचाना जाता, वह तथा जो अमुक निमित्त से शरीर जुंगित हुआ है, ऐसा जाना जाता है, वह वहीं रहे। (अन्यत्र जाने से लोगों में अपवाद होता. है ।) ३६४१. जे हिंडता काए, वर्धिति जे वि य करैति उहाहं । किन्नु हु गिहि सामन्ने, वियंगिता लोगसंका उ॥ जो शरीर से जुंगित हैं वे इधर-उधर घूमते हुए पृथ्वोकाय आदि की हिंसा करते हैं। जो नाक आदि कटे हुए जुंगित हैं वे प्रवचन का उड्डाह करते हैं। उन्हें देखकर लोगों में यह शंका होती है कि निश्चित ही ये गृहसामान्य में व्यंगता को प्राप्त थे अर्थात् गृहस्थावस्था में भी शरीरावयव से विकल थे। ३६४२. पायच्छि-नास-कर- कण्ण, जुंगिते जातिजुंगिते चेव । वोच्चत्थे चउलहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं ॥ शरीर से जुंगित पांच हैं-छिन्नपाद, अक्षिकाण, छिन्ननासा, छिन्नकर, छिन्नकर्ण तथा छठा है जाति जुंगित। यदि पर्यास पात्र हों तो सबको देने चाहिए पर्याप्त न हो तो उपन्यस्तक्रम से पांच दातव्य हैं। विपर्यास करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। समान जुंगितत्व हो तो पहले श्रमणियों को पात्र दातव्य है और १. उपदेश से आहिंडक १२ वर्ष तक सूत्र ग्रहण, १२ वर्ष तक अर्थग्रहण फिर १२ वर्ष तक देशदर्शन के लिए गमन । Jain Education International ३२९ फिर श्रमणों को। पावमूलं तु । निवेदेति । ३६४३. अह एते तु न हुज्जा, ताघे निद्दि गंतूण इच्छकारं, काउं तो तं यदि प्रागुक्त अध्वनिर्गत आदि न हो तो जिसके लिए पात्र निर्दिष्ट है उसके पादमूल (पास) में जाकर, इच्छाकारपूर्वक वह पात्र उसे समर्पित कर दे। (यह कहे यह पात्र तुम्हारे लिए लाया हूं, इच्छाकार से तुम इसे ग्रहण करो ।) ३६४४. अद्दिट्ठे पुण तहियं, पेसे अधवा वि तस्स अप्पाहे । अघउ न नज्जति ताडे, ओसरणेसुं तिसु वि मम्मे ॥ ३६४५. एगे वि महंतम्मि उ, उग्घोसेऊण नाउ नेति तहिं । अह नत्थि पवती से ताथे इच्छाविवेगो वा ॥ जिसके लिए पात्र निर्दिष्ट है और वह नहीं दिखाई दे तो दूसरे के हाथों उसे उसके पास भेजे अथवा उसे संदेश कहलाए। यदि उसका अता-पता ज्ञात न हो तो समवसरण में जाकर उस साधु की मार्गणा करे। न मिलने पर किसी एक बड़े समवसरण में उस मुनि के लिए उद्घोषणा कराए। मिल जाने पर वह पात्र उसे दे दे अथवा जहां वह मुनि है वहां उस पात्र को स्वयं ले जाए अथवा दूसरों के हाथ से उसे उस मुनि के पास पहुंचा दें। यदि उसका कोई वृत्तांत न मिले तो इच्छा हो तो उस पात्र को स्वयं धारण करे अथवा दूसरे को दे अथवा उसका परिष्ठापन कर दे। ३६४६. एगे उ पुव्यमणिते, कारण निक्कारणे दुविधभेदो। आहिंडग ओधाणे, दुविधा ते होंति एक्केक्का ॥ एकाकी के दो प्रकार पूर्व कथित हैं-कारणवश तथा निष्कारण । आहिंडक तथा अवधान-इनमें प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं। ३६४७. असिवादी कारणिया, निक्कारणिया य चक्कयूभादी। उवदेस- अणुवएसे, दुविधा आहिंडगा होंति । जो अशिव आदि के कारण एकाकी हुए हैं वे कारणिक हैं। और जो चक्र, स्तूप आदि की वंदना करने के लिए एकाकी हुए हैं। वे निष्कारणिक हैं। अहिंडक दो प्रकार के हैं-उपदेश से तथा अनुपदेश से।" ३६४८. ओहावंता दुविधा, लिंग विहारे य होति नातव्वा । एगागी छप्पेते, विहार तहिं दोसु समणुण्णा ॥ अवधावी दो प्रकार के ज्ञातव्य हैं-लिंग से तथा विहार से। निम्नोक्त छहों विहारी एकाकी होते हैं-कारणिक, निष्कारणिक, औपदेशिक, अनौपदेशिक, लिंग से अवधावी, बिहार से अवधावी । (ये छहों यद्यपि मुनिवृंद के साथ घुमते हैं, परंतु गच्छ से निर्गत होने के कारण एकाकी कहे जाते हैं। इन छहों में दो समनोन अनुपवेश से आहिंडक अमुक अवधि तक चैत्यवंदन के लिए देश गमन करने वाले । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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