________________
३३२
सानुवाद व्यवहारभाष्य उपकरण उपहत हो गए अथवा नहीं हैं तो गीतार्थ मुनि अन्य उपहत हो जाता है। आचार्य कहते हैं-संस्पर्श से जिनका उपहनन उपधि का उत्पादन करते हैं।
हो जाता है, उनकी शोधि नहीं होती। ३६७३. संजतभावित खेत्ते, तस्सऽसतीए उ चक्खुवेंटिहतं। ३६७९. लेवाडहत्थछिक्के, सहस अणाभेगतो व पक्खित्ते। तस्सऽसतिवेंटलहते, उप्पाएंतो उ सो एती।।
अविसुद्धग्गहणम्मि व, असुज्झ सुज्झेज्ज वा इतरं ।। वे उपधि का उत्पादन संयतभावित क्षेत्र (उस क्षेत्र से जहां असांभोगिक पात्र में गृहीत भक्तपान से लिप्त हाथों से सहसा पहले संयत रूप में रहे थे) से करते हैं। उसके अभाव में अथवा अनाभोगसे-एकांत विस्मृति से असांभोगिक से सांभोगिक चक्षुर्वेटिहत-दृष्टि से परिचित क्षेत्र से करते हैं। इसके अभाव में पात्र में क्षिप्त होने पर वह भी असांभोगिक हो जाता है। अविशुद्ध वेंटलहत अर्थात् वह क्षेत्र जहां पहले विंटल (जादू आदि) के आहार आदि के ग्रहण से वह भाजन भी अशुद्ध हो जाता है। तो प्रयोग से आहार और उपधि का उत्पादन किया था, उस क्षेत्र से इसी प्रकार अशुद्ध शुद्ध के संस्पर्श से शुद्ध हो जाएगा। ऐसा नहीं उपधि का उत्पादन कर वे गीतार्थ मुनि आते हैं।
होता। ३६७४. जाणंति एसणं वा, सावगदिट्ठी उ पुव्वझुसिता वा। ३६८०. लक्खणमतिप्पसत्तं,अतिरेगे वि खलु कप्पती उवधी। विंटलभाविय णेण्डिं, किं धम्मो न होति गेण्हेज्जा॥
इति आहारेमाणं, अतिप्पमाणे बहू दोसा॥ दृष्टि से पूर्व परिचित श्रावक एषणा आदि दोषों को जानते अतिरेक उपधि कल्पती है-इस लक्षण की अतिप्रसक्ति से हैं। वे दोष विशुद्ध उपकरण देते हैं। गीतार्थ यदि वेंटल भावित आहार भी अतिप्रमाण में ग्रहण न करे। अतिप्रमाण में आहार क्षेत्र से उपधि का उत्पादन करते हैं तो वहां के लोग कहते हैं-तुमको करने से बहुत दोष हैं। बिना किसी प्रतिफल की आशा से देना क्या धर्म नहीं होगा? ३६८१. अधवावि पडिग्गहगे, भत्तं गेण्हति तस्स किं माणं। उनसे उपकरण ग्रहण करते हैं।
जं जं उवग्गहे वा, चरणस्स तगं तगं भणती॥ ३६७५. एवं उप्पाएउं, इतरं च विगिंचिऊण तो एती। अथवा पूर्वसूत्र में पतद्ग्रह के विषय में बताया है। उसमें
असती य जधा लाभ, विविंचमाणे इमा जतणा॥ भक्त लिया जाता है। उसका प्रमाण कितना होना चाहिए, यह इस इस प्रकार उत्पादन कर, इतर का परिष्ठापन कर वह आता सूत्र में बताया गया है। चारित्र के लिए वह कितना उपग्रहकारक है। यदि प्राप्ति नहीं होती तो परिष्ठापन की यह यतना है। है, वह सूत्रकार बताते हैं। ३६७६. उवहतउग्गहलंभे, उग्गहण विगिंच मत्तए भत्तं। ३६८२. निययाहारस्स सया, बत्तीसइमो उ जो भवे भागो। __अप्पत्ते तत्थ दवं, उग्गहभत्तं गिहिदवेणं॥
तं कुक्कुडिप्पमाणं, नातव्वं बुद्धिमंतेहिं।। ३६७७. अपहुव्वंते काले, दुल्लभदवऽभाविते य खेत्तम्मि। सदा अपने आहार की मात्रा का जो बत्तीसवां भाग है वह
मत्तगदवेण धोव्वति, मत्तगलंभे वि एमेव॥ बुद्धिमान् मनुष्यों को कुक्कुटि के अंडे के प्रमाण का मानना चाहिए।
उपहत उग्गह-अर्थात् अशुद्ध पतद्ग्रह होने पर जब शुद्ध ३६८३. कुच्छियकुडी तु कुक्कुडि, सरीरगं अंडगं मुहं तीए। पात्र का लाभ होता हो तो उस अशुद्ध का परिष्ठापन कर देना ___ जायति देहस्स जतो, पुव्वं वयणं ततो सेसं॥ चाहिए। उसकी विगिंचना हो जाने पर पतद्ग्रह विशुद्ध और मात्रक कुत्सित कुटी कुक्कुटी अर्थात् शरीर। शरीर रूपी कुक्कुटी अविशुद्ध होता है। मात्रक में भक्त लेना चाहिए और उस पतद्ग्रह का अंडक-मुख महान् होता है, मुख्य होता है। क्योंकि चित्र में, में पानी। इस पानी से फिर मात्रक का कल्प करे। यदि मात्रक में गर्भ में अथवा उत्पात में पहले शरीर का मुख होता है, शेष उसके गृहीत भक्त अपर्याप्त होता हो तो मात्रक में द्रव-पानी तथा पतद्ग्रह पश्चात् (प्रथम होने के कारण मुख अंडक कहलाता है।) में भक्त ले। आहार करने के पश्चात् गृहस्थ के भाजन से पानी ३६८४. थलकुक्कुडिप्पमाणं, जं वाणायासिते मुहे खिवति। लाकर भक्त के पात्र को साफ करे, मात्रक के पानी से साफ न
अयमन्नो तु विगप्पो, कुक्कुडिअंडोवमे कवले॥ करे। यदि गृहस्थ के भाजन में पानी लाने तक का काल पर्याप्त न स्थलकुक्कुटि (अंडक) प्रमाण-स्थल का अर्थ है खुले मुंह होने पर अथवा वह क्षेत्र अभावित है। द्रव-पानी मिलना दुर्लभ है का आकाश। उतने प्रमाण वाला कवल जो अनायासित-खुले तब मात्रक के पानी से पतद्ग्रह धो डाले। इसी प्रकार विशुद्ध मुंह में प्रक्षिप्त किया जा सके। इसका दूसरा विकल्प अर्थात् अर्थ मात्रक के लाभ में भी यही सारी विधि ज्ञातव्य है।
है-कुक्कुटि अंडक की उपमा से उपमित कवले। ३६७८. चोदेति सुद्धऽसुद्धे, संफासेणं तु तं तु उवहम्मे। ३६८५. अट्ठ त्ति भाणिऊणं, छम्मासा हावते तु बत्तीसा।
भण्णति संफासेणं, जेसुवहम्मे न सिं सोधी॥ नामं चोदगवयणं, पासाए होति दिद्रुतो॥ जिज्ञासु कहता है, शुद्ध भक्त-पान भी अशुद्ध के संस्पर्श से सूत्र में जो आठ कवल की बात कही है, वह जघन्य अवमौदर्य For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International