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आठवां उद्देशक
ति गुरु।
३६१६. अतिरेगदुविधकारण, अभिणवगहणे पुराणगहणे य।
अभिणवगहणे दुविहे, वावारिय अप्पछंदे य॥ दो कारणों से अतिरिक्त पात्र का ग्रहण संभव है-अभिनव का ग्रहण तथा पुरातन का ग्रहण। अभिनवग्रहण दो प्रकार का होता है-व्यापारित तथा आत्मछंद (स्वच्छंद)। ३६१७. भिन्ने व झामिए वा, पडिणीए तेण साणमादि हिते।
सेहोवसंपयासु य, अभिणवगहणं तु पायस्स।।
अभिनवपात्र का ग्रहण इन कारणों से हो सकता है-पुराना पात्र टूट गया हो, अग्नि से जल गया हो, प्रत्यनीक, चोर अथवा कुत्ते ने उसका अपहरण कर लिया हो, उपसंपन्न शैक्ष के लिए आवश्यक हो। ३६१८. देसे सव्वुवहिम्मी, अभिग्गही तत्थ होंति सच्छंदा।
तेसऽसति निजोएज्जा, जे जोग्गा दुविधउवधिम्मि।।
गण में कुछ मुनि गच्छ के उपयुक्त उपकरणें से उत्पादन में स्वच्छंद अर्थात् आत्मच्छंद होते हैं-बिना नियुक्त ही उपकरणों का उत्पादन करने के लिए साभिग्रह होते हैं। उनके दो प्रकार हैं-देश उपधि के उत्पादक तथा सर्व उपधि के उत्पादक। इनके अभाव में जो उपधि के उत्पादन में योग्य होते हैं आचार्य उनको उस कार्य में नियोजित करते हैं। १६१९. दुविधा छिन्नमछिन्ना, भणंति लहगो य पडिसुणंते य।
गुरुवयण दूरे तत्थ उ, गहिते गहणे य जं वुत्तं॥
वे नियुक्त मुनि दो प्रकार के होते हैं-छिन्न और अछिन्न। पात्र लाने के लिए मुनि को तथा लाने की स्वीकृति देने वाले को लघुमास का प्रायश्चित्त, गुरुवचन, दूर गए हुए को, गृहीत करने पर, ग्रहण करने पर जो सूत्र में कहा है-यह द्वार गाथा है। (इसकी व्याख्या आगे के श्लोकों में।) ३६२०. गेण्हह वीसं पाए, तिन्नि पगारा उ तत्थ अतिरेगो।
तत्थेव भणति एगो, मज्झ वि गेण्हेज्ज जध अज्जो॥
आचार्य ने पात्र लाने वाले मुनि से कहा-बीस पात्र ग्रहण कर लेना, ले आना। यहां अतिरेक (अतिरिक्त पात्र मंगाने वाले मुनि) तीन प्रकार के होते हैं। एक मुनि वहीं (आचार्य के समक्ष) कहता है-आर्य! मेरे लिए भी पात्र ले आना। (यह अतिरेक का एक प्रकार है। ३६२१. आयरिए भणाहि तुम,लज्जालुस्स य भणंति आयरिए।
नाऊण व सढभावं, नेच्छंतिधरा भवे लहुगो॥
जो लज्जावश आचार्य को विज्ञापित नहीं कर सकता वह दूसरे को कहता है-तुम आचार्य को कहो कि मेरे भी पात्र की आवश्यकता है। वे मुनि उसके शटभाव को जानकर आचार्य को कहना नहीं चाहते। और यदि शठभाव को जानते हुए भी आचार्य को कहते हैं तो उनको लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
३२७ ३६२२. जइ पुण आयरिएहिं, सयमेव पडिस्सुतं भवति तस्स।
लक्खणमलक्खणजुतं, अतिरेगं जं तु तं तस्स।।
यदि आचार्य ने स्वयं ही उस लज्जालु के लिए अतिरिक्त पांच ग्रहण की बात स्वीकार कर ली हो तो लक्षणयुक्त अथवा अलक्षणयुक्त अतिरिक्त पात्र जो प्राप्त होता है, वह उसको देना चाहिए। ३६२३. बितिओ पंथे भणती, आसन्नागंतु विण्णवेंति गुरूं।
तं चेव पेसवंती, दूरगयाणं इमा मेरा।। दूसरे प्रकार के मुनि वे होते हैं जो पात्र लाने वाले को मार्ग में देखकर कहते हैं-मेरे योग्य भी पात्र ले आना। ऐसा कहने पर यदि निकट हों तो वह पात्रग्राही मुनि गुरु को आकर उस मुनि की बात निवेदित करते हैं। अथवा पात्र मांगने वाले मुनि को ही गुरु के पास भेज देते हैं। दूर गए हुए मुनियों के लिए यह मर्यादा है, सामाचारी है। ३६२४. गेण्हामो अतिरेगं, तत्थ पुण विजाणगा गुरू अम्हं।
देहिंति तगं वण्णं, साधारणमेव ठावेंति ॥ दूर गए हुए पात्रग्राही मुनि से कोई पात्र लाने के लिए कहे तो वह प्रत्युत्तर में कहे-हम अतिरिक्त पात्र लाएंगे। हमारे गुरु ही इसके विज्ञायक हैं। वे ही अतिरिक्त पात्र तुम्हें देंगे अथवा दूसरा, कौन जानता है। वे स्वयं उस सुंदर पात्र को रखलें अथवा जिसे देना चाहें, उसे दे दे। इस प्रकार साधारण बात उसे कहनी चाहिए। ३६२५. ततिओ लक्खणजुत्तं, अहियं वीसाए ते सयं गेण्हे।
एते तिन्नि विगप्पा, होतऽतिरेगस्स नातव्वा ।।
तीसरे प्रकार के मुनि वे होते हैं तो बीस से अधिक लक्षणयुक्त पात्रों को स्वयं ग्रहण कर लते हैं। ये तीन विकल्प अतिरिक्त पात्र के विषय में ज्ञातव्य हैं। ३६२६. सच्छंद पडिण्णवणा, गहिते गहणे य जारिसं भणियं।
अल थिर धुव धारणियं, सो वा अन्नो य णं धरए॥ स्वच्छंद आभिग्रहिक मुनि प्रतिज्ञापना करे अर्थात् विधिपूर्वक पात्र की मार्गणा करे। पात्र के गृहीत और ग्रहण के विषय में जैसेजैसे कहा है (कल्पाध्ययन की पीठिका में) वैसे करे। आचार्य ने जितने पात्रों के लिए कहा उतने गृहीत कर लिए। फिर 'समर्थ तथा चिरकालस्थायी पात्र को धारण कर लेना चाहिए' इस न्यास से वह यह सोचकर ले लेता है कि आचार्य की अनुज्ञा से मैं इसे ग्रहण कर लूंगा अथवा आचार्य स्वयं इसे धारण कर लेंगे अथवा अन्य साधु इसे ग्रहण कर लेगा। इस प्रकार अतिरिक्त पात्र संभव है। ३६२७. ओमंथपाणमादी, गहणे तु विधिं तहिं पउंजंति।
गहिए य पगासमुहे, करेंति पडिलेह दो काले॥ पात्र-ग्रहण करने में इस विधि का प्रयोग करना चाहिए कि
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