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३६०४. जदि होंति दोस एवं, तम्हा एक्केक्क धारए एक्कं।
सुत्ते य एगभणियं, मत्तग उवदेसणा वेण्डिं। ३६०५. दिन्नज्जरक्खितेहिं, दसपुरनगरम्मि उच्छुघरनामे।
वासावासठितेहिं, गुणनिप्फत्तिं बहुं नाउं॥
यदि 'बहुतों के एक पात्र'-इससे दोष होते हैं तो प्रत्येक मुनि एक-एक पात्र धारण करे। सूत्र में भी एक ही पात्र अनुज्ञात है। आचार्य आर्यरक्षित दशपुरनगर में इक्षुगृह नामक उद्यान में वर्षावास में स्थित थे। उन्होंने उस समय अत्यधिक गुणनिष्पत्ति जानकार मात्रक की अनुज्ञा दी। ३६०६. दूरे चिक्खल्लो वुहिकाय सज्झायझाणपलिमंथो।
तो तेहि एस दिन्नो, एव भणंतस्स चउगुरुगा।
जो ऐसा कहते हैं कि आर्यरक्षित नगर से दूर उद्यान में स्थित थे। मार्ग कीचड़-बहुल था। वर्षा हो रही थी। जाने-आने में अप्काय और हरितकाय की विराधना होती थी। स्वाध्याय और ध्यान का परिमंध-व्याघात होता था। इसलिए उन्होंने मात्रक का उपदेश दिया। ऐसा कहने वालों को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३६०७. पाणदयखमणकरणे, संघाडासति विकप्पपरिहारी।
खमणासह एगागी गेण्हेति तु मत्तए भत्तं ।। ३६०८. थेराणं सविदिण्णो, ओहोवधि मत्तगो जिणवरेहिं।
आयरियादीणट्ठा, तस्सुवभोगो न इधरा उ॥ मात्रक रखने के कारण-प्राणदया, क्षपणकरण- तपस्या करने, संघाटक के अभाव में, विकल्प का परिहरण करने, क्षपण करने में असमर्थ मुनि एकाकी भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुआ पात्र में पानक और मात्रक में भक्त ग्रहण कर सकता है। इसलिए स्थविरों के लिए ओघ उपधि के रूप में मात्रक को जिनवरों ने वितीर्ण अर्थात् अनुज्ञात किया है। मात्रक का उपभोग आचार्य
आदि (ग्लान, प्राधूर्णक, बाल, वृद्ध) के प्रायोग्य ग्रहण करने के लिए अनुज्ञात है। अन्य कारण से उसका उपभोग अनुज्ञात नहीं ।
सानुवाद व्यवहारभाष्य ३६१०. एवं सिद्धग्गहणं आयरियादीण कारणे भोगो।
पाणदयट्ठवभोगो, बितिओ पुण रक्खियज्जाओ।
इस प्रकार मात्रक का ग्रहण सिद्ध होता है। आचार्य आदि के लिए मात्रक का भोग अनुज्ञात है। दूसरा कारण उसके उपभोग के कारण का है-प्राण दया के लिए। यह कारण आर्यरक्षित से प्रारंभ हआ। ३६११. जत्तियमित्ता वारा, दिणेण आणेति तत्तिया लहुगा।
अट्ठहि दिणेहि सपदं, निक्कारण मत्तपरिभोगो।। निष्कारण मात्रक का परिभोग दिन में जितनी बार किया जाता हैं उतने ही लघमास का प्रायश्चित्त आता है। आठ दिनों में स्वपद अर्थात् पुनः व्रतों का आरोपण (मूल नामक आठवां प्रायश्चित्त)-यह प्रायश्चित्त आता है। ३६१२. जे बेंति न घेत्तव्वो, उ मत्तओ जे य तं न धारेंति।
चउगुरुगा तेसि भवे, आणादिविराधणा चेव ॥
जो यह कहते हैं कि मात्रक ग्रहण नहीं करना चाहिए और जो मात्रक को धारण नहीं करते, उन प्रत्येक को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष और संयम-विराधना भी होती है। ३६१३. लोए होति दुगुंछा, वियारे पडिग्गहेण उड्डाहो।
आयरियादी चत्ता, वारत्तथलीय दिटुंतो।। जिस पात्र में भिक्षा होती है, उसी पात्र को विचार भूमी में शौच के लिए ले जाने से लोगों में जुगुप्सा होती है तथा प्रवचन का उड्डाह होता है। मात्रक के अपरिभोग से आचार्य आदि परित्यक्त हो जाते हैं। यहां वारतस्थली (?) का दृष्टांत है। ३६१४. तम्हा उ धरेतव्वो, मत्तो य पडिग्गहो य दोण्णेते।
गणणाय पमाणेण य, एवं दोसा न होंतेते॥ इसलिए मात्रक और पतद्ग्रह (पात्र) दोनों को धारण करना चाहिए। गणना और प्रमाण के द्वारा ग्रहण करने से पूर्वोक्त दोष नहीं होंगे। ३६१५. जइ दोण्ह चेव गहणं, अतिरेगपडिग्गहो न संभवति।
अह देति तत्थ एगं, हाणी उड्डाहमादीया।। प्रश्न होता है कि यदि दो-एक पात्र और एक मात्रक का ही ग्रहण अनुज्ञात है तो फिर अतिरिक्त पात्र-ग्रहण की संभावना नहीं रहती। इस स्थिति में यदि अध्वनिर्गत आदि को एक पात्र देता है तो उसके एक पात्र की हानि हो जाएगी। फिर एक ही पात्र से भिक्षा और शौच क्रिया करने से जुगुप्सा और प्रवचन का उड्डाह आदि होगा।
ही उसका वर्जन किया।
है।
३६०९. गुणनिप्फत्ती बहुगी, दगमासे होहिति त्ति वितरंति।
लोभे पसज्जमाणे, वारेति ततो पुणो मत्तं ।।
आचार्य आर्यरक्षित ने सोचा कि दकमास-वर्षावास में मात्रक के उपभोग से बहुत गुणनिष्पत्ति होती है इसलिए उन्होंने इसकी अनुज्ञा दी। ऋतुबद्धकाल में आचार्य आदि के प्रायोग्य द्रव्य ग्रहण करने के लिए मात्रक का उपभोग किया जा सकता है। अन्य कारणों में उसका उपभोग केवल लोभ के प्रसंग से होता है। इसलिए मात्रक का वारण किया जाता है। १. निशीथ भाष्य गाथा ४५३८ की चूर्णी के अनुसार आर्यरक्षित ने अपने
उपभोग के लिए मात्रक की आज्ञा दी। ऋतुबद्धकाल में स्वयं के लिए
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