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उपभोग किया जा सकता है। ३५८१. बितियपदे न गेण्हेज्ज, संविग्गाणं पिमेहि कज्जेहिं।
आसंकाए नज्जति, संविग्गाणं व इतरेसिं।।
अपवादपद में संविग्नों की पतित उपधि भी इन कारणों से ग्रहण न करे। यह पतित उपधि संविग्नों की है अथवा असंविग्नों की, इस आशंका से उसको न उठाए। ३५८२. असिवगहितो व सोउं,
ते वा उभयं व होज्ज जदि गहियं। ओमेण अन्नदेसं,
व गंतुकामा न गेण्हेज्जा॥ १. यह सुनकर की उपधि का स्वामी अशिवगृहीत है, देखने वाला नहीं।
२. देखनेवाला अशिवगृहीत है, मूलस्वामी नहीं। ३. दोनों अशिवगृहीत हैं। ४. दोनों अशिवगृहीत नहीं हैं।
प्रथम, द्वितीय भंग में उपधि का अग्रहण है क्योंकि अशिवोपहत हैं। तृतीय भंग में अशिव दोनों में समान है अतः कारण में उपधि का ग्रहण हैं। अथवा अवमौदर्य के कारण देशांतर जाने की कामना होने के कारण ग्रहण नहीं किया जाता। ३५८३. अध पुण गहितं पुव्वं, न य दिट्ठो जस्स विच्चुयं तं तु।
पधावितअण्णदेसं, इमेण विधिणा विगिंचेज्जा॥
अथ पहले उपकरण ग्रहण कर लिया और जिसका वह उपकरण गिरा था उसको नहीं देखा, और वह अन्य देश में चला। गया। उस उपधि का इस विधि से परिष्ठापन करे। ३५८४. दुविहा जातमजाता, जाता अभियोग तह असुद्धा य।
___ अभियोगादी छेत्तुं, इतरं पुण अक्खुतं चेव॥
परिष्ठापनिका दो प्रकार की होती है-जात और अजात। जात का अर्थ है अभियोगकृत (वशीकृत) अथवा अशुद्ध। जो जात है, अभियोगकृत है उसका छेदन-भेदन कर परिष्ठापन किया जाता है। इतर अर्थात् जो उपकरण अभियोग आदि दोष रहित है वह अक्षतरूप में परिष्ठापनीय है। ३५८५. पहनिग्गयादियाणं, विजाणणट्ठाय तत्थ चोदेति।
सुद्धासुद्धनिमित्तं, कीरतु चिंधं इमं तु तहिं।।
पथनिर्गत मुनियों द्वारा शुद्धाशुद्ध निमित्त से यह परिष्ठापित है, इसके विज्ञान के निमित्त वक्ष्यमाण यह चिन्ह किया जाता है। ३५८६. एगा दो तिन्नि वली, वत्थे कीरंति पाय-चीराणि।
छुब्भंतु चोदगेणं, इति उदिते बेति आयरिओ।। वस्त्र पर एक, दो, तीन चक्रों का चिन्ह किया जाता है और पात्र पर एक, दो, तीन चीवरखंड तथा इसी प्रकार एक, दो, तीन पत्थर रखे जाते हैं। शिष्य के द्वारा इस प्रकार कहने पर आचार्य
सानुवाद व्यवहारभाष्य कहते हैं३५८७. सुद्धमसुद्धं एवं, होति असुद्धं च सुद्ध वातवसा।
तेण ति दुगेग गंथी, वत्थे पादम्मि रेहा ऊ॥
वायु के वश से शुद्ध अशुद्ध हो जाता है और अशुद्ध शुद्ध। (वायु के कारण चीवर इधर-उधर हो सकते हैं।) इसलिए मूलोत्तरगुण शुद्ध वस्त्र पर तीन ग्रंथियां, पात्र पर तीन रेखाएं तथा उत्तरगुण से अशुद्ध वस्त्र पर दो ग्रंथियां तथा पात्र पर दो रेखाएं तथा मूलगुण से अशुद्ध वस्त्र पर एक ग्रंथी तथा पात्र पर एक रेखा करनी चाहिए। ३५८८. अद्धाणनिग्गतादी, उवएसाणयण पेसणं वावि।
अविकोवित अप्पणगं, दड्ढे भिन्ने विवित्ते य॥ मार्ग में निर्गत आदि, उपदेश, आनयन, प्रेषण, अकोविद, आत्मीय, दग्ध, भिन्न, विविक्त-व्याख्या आगे के श्लोकों में। ३५८९. अद्धाणनिग्गतादी, नाउ परित्तोवधी विवित्ते वा।
संपंडुगभंडधारि, पेसंती ते विजाणते॥ मार्ग में निर्गत तथा अशिव आदि कारणों से निर्गत मुनि जो परिमित्त उपधि वाले हैं अथवा विविक्त उपधि अर्थात् विस्मृति के कारण जिनकी उपधि गिर गई है, उनको जानकर वहां के वास्तव्य मुनि जो संपांडुगभांडधारी हैं अर्थात् जो जितने उपकरण आवश्यक हैं, उतने मात्र रखते हैं, शेष का परिष्ठापन कर देते हैं, वे उन आगंतुक साधुओं को कहे-हमारे पास अतिरिक्त उपकरण आदि नहीं है। हमने अमुक प्रदेश में उनका परिष्ठापन कर दिया है। आप जाकर उन्हें ग्रहण कर लें। तब प्राघूर्णक मुनि विज्ञ गीतार्थ मुनियों को भेजते हैं। ३५९०. गड्डा-गिरि-तरुमादीणि, काउ चिंधाणि तत्थ पेसंति।
अवियावडा सयं वा, आणंतऽन्नं व मग्गंति।। _ वे वास्तव्य मुनि प्राघूर्णक मुनियों को गर्ता, गिरी, तरु आदि के चिन्ह बताकर वहां भेजते हैं। यदि वे अन्य कार्य में व्याप्त न हों तो स्वयं जाकर वे उपकरण ले आते हैं अथवा अन्य उपकरण की मार्गणा करते हैं। ३५९१. नीतम्मि वि उवगरणे, उवहतमेतं न इच्छती कोई।
अविकोवित अप्पणगं, अणिच्छमाणो विविंचंति।।
उपकरण ले आने पर भी कोई अकोविद मुनि उसे उपहत मानकर उसको लेने की इच्छा न करे तो उसे अपना आत्मीय वस्त्र आदि दे। उसे भी वह लेना न चाहे तो जो आनीत वस्त्र है उसका पुनः व्युत्सर्जन कर दे। ३५९२. असतीय अप्पणो वि य,
झामित-हित-वूढ-पडियमादीसु। सुज्झति कयप्पयत्ते,
तमेव गेण्हं असढभावो॥
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