Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 362
________________ आठवां उद्देशक ३२३ जो प्रथम प्रहर में गिरी हुई वस्तु को लाने के लिए गया, वह कहलवाए। जिस उपधि की विस्मति हो गई, जिसका व्युत्सर्ग चरम प्रहर में भी निवर्तन कर सकता है, यदि सीमा के बीच में कर दिया, उसको जो लाया है, उसके उस उपधि के बिना यदि रहने का स्थान हो तो। यदि दिन के चरम प्रहर में वस्तु गिरी हो संस्तरण न हो तो अल्प-बहुत्व का विमर्श कर उसका परिभोग तो रात्री के तीन प्रहर ठहरकर चरम प्रहर में प्रत्यवाय के अभाव अनुज्ञात है। में निवर्तन करे। ३५७५. कामं पम्हुटुं ण्हे, चत्तं पुण भावतो इमम्हेहिं। ३५६९. दूरं सो वि य तुच्छो, सावय तेणा नदी व वासं वा। इति बेंते समणुण्णे, इच्छाकज्जेसु सेसेसु॥ इच्चादिकारणेहिं, करेंति उस्सग्ग मो तस्स। कोई गिरी हुई उपधि को लाकर दे और कहे-यह तुम्हारी कोई उपधि गिर गई और दूर जाने पर उसकी स्मृति आई, वस्तु है। मैं लाया हूं। इसे लें। हमने इसका भावतः व्युत्सर्ग किया वह उपधि तुच्छ थी, उसको लाने के लिए जाने में श्वापद, स्तेन है। यदि सांभोगिक हों तो वे उसका परिष्ठापन कर देते हैं। जो शेष का भय, बीच में नदी, वर्षा आदि के कारणों से उस उपधि का अर्थात् असांभोगिक हैं, उनके द्वारा लेने से प्रतिषेध किए जाने पर व्युत्सर्ग कर देता है (तीन बार, वोसिरामि कह देता है।) लाने वाला उसका उपभोग कर सकता है। ३५७०. एवं ता पम्हुट्ठो, जेसिं तेसिं विधी भवे एसो। ३५७६. पक्खिगापक्खिगा चेव, भवंति इतरे दुहा। जे पुण अन्ने पेच्छे, तेसिं तु इमो विधी होति॥ संविग्गपक्खिगे णेति, इतरेसिं न गेण्हती। इस प्रकार जिनकी उपधि विस्मृत हो गई उनके लिए यह असं विग्न दो प्रकार के हैं-संविग्नपाक्षिक और कथित विधि है। जो अन्य साधर्मिक देखते हैं, उनके लिए यह असंविग्नपाक्षिक। संविग्नपाक्षिक की पतित उपधि स्वयं लाता है, विधि होती है। दूसरे के साथ प्रेषित करता है आदि। इतर अर्थात् असंविग्नपाक्षिक ३५७१. दुट्ठवगहणे लहुगो, दुविधो उवही उ नायमण्णातो। की पतित उपधि ग्रहण नहीं करते। दुविधा णायमणाया, संविग्ग तथा असंविग्गा॥ ३५७७. इतरे वि होज्ज गहणं आसंकाए अणज्जमाणम्मि। देख लेने पर यदि उपधि का ग्रहण नहीं किया जाता है तो किह पुण होज्जा संका, इमेहिं तु कारणेहिं ति।। लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। उपधि के दो प्रकार हैं-औधिक इतर अर्थात् असंविग्नपाक्षिक उपधि का अज्ञात स्थिति में और औपग्रहिक। उपधि दो प्रकार की है-ज्ञात और अज्ञात। (यह आशंका से ग्रहण होता है। शंका इन कारणों से हो सकती हैअमुक की है यह ज्ञात उपधि है और इसके विपरीत अज्ञात) इनके ३५७८. ण्हाणादोसरणे वा, अधव समावत्तितो गताणेगा। दो-दो प्रकार हैं-संविग्न और असंविग्न। संविग्गमसंविग्गा, इति संका गेण्हते पडितं ।। ३५७२. मोत्तूण असंविग्गे संविग्गाणं तु नयणजतणाए। जिनप्रतिमा के स्नान आदि समवसरण में अथवा अनेक दोवग्गा संविग्गे छन्भंगा णायमण्णाए। साधु आकस्मिक कारणों से इधर-उधर गए हों, वे संविग्न या असंविग्नों की उपधि को छोड़कर संविग्न की उपधि को असंविग्न हो सकते हैं। उनके पतित उपधि को शंका से ग्रहण यतनापूर्वक ले जाए। संविग्न के दो वर्ग हैं-संयत और संयतियां। किया जाता है। संविग्न के प्रत्येक वर्ग के छह भंग ज्ञात के होते है। अज्ञात की यह ३५७९. संविग्गपुराणोवहि, अधवा विधि सिव्वणा समावत्ती। विधि है। होज्ज व असीवितो च्चिय, इति आसंकाए गहणं तु॥ ३५७३. सयमेव अन्नपेसे, अप्पाहे वावि एव सग्गामे । पुराणसंविग्न उपधि-अर्थात् जो पहले संविग्न था, फिर परगामे वि य एवं, संजतिवग्गे वि छन्भंगा।। असंविग्न हो गया, उसकी उपधि गिर जाने पर अथवा असंविग्नों यदि वह उपकरण संविग्न का है तो स्वयं ले जाकर दे के द्वारा आकस्मिक स्थिति में विधिपूर्वक सीया हुआ है अथवा अथवा दूसरों के हाथों उसे भेजे अथवा संदेश भेजें कि यह उपधि असीवित है, उस उपधि को देखकर आशंका होती है और उस मुझे प्राप्त हुई है। स्वग्राम के तीन भंग तथा परग्राम के तीन । आशंका से उसे ग्रहण किया जाता है। भंग-इस प्रकार संयत और संयतीवर्ग के भी छह भंग होते हैं। ३५८०. ते पुण परदेसगते, नाउं भुंजंति अहव उज्झंति। ३५७४. ण्हाणादणाय घोसण, सोउं गमणं च पेसणप्पाहे। अन्ने तु परिट्ठवणा, कारणभोगो व गीतेसुं॥ पम्हुढे वोसढे, अप्पबहु असंथरंतम्मि। जिनकी पतित उपधि भी, वे परदेश चले गए, यह जानकर प्राप्त उपधि किस की है, यह ज्ञात न होने पर स्नान आदि उसका उपभोग किया जाता है अथवा उसका परिष्ठापन कर दिया समवसरण में घोषणा कराई जाती है। उसको सुनकर किसी के जाता है। असांभोगिक की उपधि हो तो उसका परिष्ठापन कर कहने पर स्वयं जाकर दे, दूसरे के साथ भेजे अथवा यह संदेश दिया जाता है। यदि वह गीतार्थ का हो तो कारण में उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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