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चौथा उद्देशक
१८५ नियुक्त था।
१९५०. पडिलेह दिय तुयट्टण, १९४४. एतेसुं ठाणेसुं, जो आसि समुज्जतो अठवितो वि।
निक्खिव आदाण विणय-सज्झाए। ठवितो वियन विसीदति, स ठावितुमलं खलु परेसिं॥
आलोग ठवण मंडलि, उपरोक्त कथित इन स्थानों पर अस्थापित होने पर भी जो
भासा गिहमत्त सेज्जतरो॥ समुद्यत रहता था, वह इन स्थानों पर स्थापित होने पर कभी उपकरणों का प्रतिलेखन नहीं करते, दिन में सोते हैं, विषादग्रस्त नहीं होता। आचार्य इन स्थानों पर दूसरों को भी उपकरणों के निक्षेप और ग्रहण करते समय प्रत्युपेक्षण तथा स्थापित कर सकता है।
प्रमार्जन नहीं करते, विनय तथा स्वाधाय नहीं करते, संखडी की १९४५. एवं ठितो ठवेती, अप्पाण परस्स गोविसो गावो। प्रतीक्षा करते हैं, स्थापनाकुलों में जाते हैं, मंडली सामाचारी का
अठितो न ठवेति परं, न य तं ठवितं चिरं होति॥ पालन नहीं करते, गृहस्थों के बर्तनों में आहार आदि लाते हैं, इस प्रकार इन स्थानों में स्थित होकर स्वयं को अथवा शय्यातर का पिंड खाते हैं। दूसरों को स्थापित करता है, जैसे गोवृष-सांड गायों को। स्वयं १९५१. एमादी सीदंते, वसभा चोदेंति चिट्ठति ठितम्मि। अस्थित होकर दूसरों को उनमें स्थापित नहीं करता क्योंकि इस
असती थेरा गमणं, अच्छति ताहे पडिच्छंतो।। प्रकार स्थापित करने पर वह चिरकालिक नहीं होता।
इन क्रियाओं में शिथिल साधुओं को अथवा आचार्य को १९४६. पउरतणपाणियाई, वणाइ रहियाइ खुड्डजंतूहिं। वृषभ मुनि शिक्षा देते हैं। शिक्षा को ग्रहण कर साधुवर्ग अथवा
नेति वि सो गोणीओ, जाणति व उवठ्ठकालं च॥ गुरु अपनी क्रियाओं में स्थित हो जाते हैं तो वह सशिष्यपरिवार
जैसे सांड क्षुदप्राणियों से रहित तथा प्रचुर तृण-पानी वाले से आया हुआ भी वहीं रह जाता है। यदि ऐसा न हो तो तब तक वन में गायों को ले जाता है तथा उपस्थानकाल-लौटने के समय वहां रहे जब तक कि स्थविर (कुलस्थविर अथवा संघस्थविर) को जान कर अपने स्थान पर गायों को ले जाता है। (वैसे ही का आगमन न हो। उनकी प्रतीक्षा करे। (उनको निवेदन करे। आचार्य गच्छ को अपनी प्रवृत्ति में नियोजित कर उसका पालन । फिर भी वे मुनि और गुरु यतमान न हों तो वहां से निर्गमन कर करता है।)
दें।) १९४७. जह गयकुलसंभूतो, गिरिकंदर-विसम-कडगदुग्गेसु। १९५२. गुरवसभगीतऽगीते, न चोदेति गुरुगमादि चउलहुओ। परिवहति अपरितंतो, निययसरीरुग्गते दंते॥
सारेति सारवेति य, खरमउएहिं जहावत्थु । जैसे गजकुल में उत्पन्न हाथी गिरीकंदराओं में, विषमकटक वृषभ अर्थात् आचार्य सामाचारी में शिथिल हुए आचार्य और दुर्गों में अपरिश्रांत होता हुआ अपने शरीर में उद्गत दांतों अथवा मुनियों को यथायोग्य कठोर या मृदुवचनों से स्वयं शिक्षा का परिवहन करता है, वैसे ही आचार्य
देता है अथवा उनसे शिक्षा दिलवाता है जिससे उन मुनियों का १९४८. इय पवयणभत्तिगतो, साहम्मियवच्छलो असढभावो। शैथिल्य दूर हो। ऐसा न करने पर प्रायश्चित्त इस प्रकार है-यदि
परिवहति साधुवग्गं, खेत्तविसमकालदुग्गेसु॥ वृषभ गुरु आदि को प्रेरित नहीं करता तब चार गुरुमास का,
जो प्रवचन की भक्ति में तत्पर, साधर्मिक वात्सल्य- वृषभ को प्रेरित नहीं करता तो चार लधुमास, गीतार्थ अथवा परायण, अमायावी होता है वह साधुवर्ग को विषम क्षेत्र तथा अगीतार्थ को प्रेरित नहीं करता तो एक लघुमास का प्रायश्चित्त विषम काल तथा दुर्भिक्ष, मारी आदि रूप दुर्गों से परिवहन करता आता है। है, उनका संरक्षण करता है।
१९५३. गच्छो गणी य सीदति, १९४९. जत्थ पविट्ठो जदि तेसु, उज्जता होउ पच्छ हावेंति।
बितिए न गणी तु ततिय न वि गच्छो। सीसे आयरिए वा, परिहाणी तत्थिमा होति।।
जत्थ गणी अवि सीयति, जिस गच्छ में सशिष्यपरिवार से वह प्रविष्ट हुआ था, वहां
सो पावतरो न पुण गच्छो ।। यदि वे साधु पहले सामाचारी में उद्यत थे, पश्चात् वे तथा गच्छ कष्ट पाता है, गणी कष्ट पाता है। आचार्य उस सामाचारी का विनाश करते हैं तो वहां यह हानि गच्छ कष्ट पाता है, गणी नहीं। होती है
गच्छ कष्ट नहीं पाता, गणी कष्ट पाता है। १. स्थापित मुनि सोचते हैं कि यदि वैयावृत्त्य का फल है तो फिर आचार्य फल जानते हुए भी वैयावृत्त्य आदि में स्वयं को क्यों नहीं नियोजित
ने स्वयं को उसमें क्यों नहीं लगाया ? वैयावृत्त्य के फल को जानने किया? वाले अविनीत या मूर्ख मुनि ऐसा सोचते हैं, कहते हैं-तुमने इतना For Private & Personal Use Only
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