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सातवां उद्देशक
२७५ २९७५. मिच्छत्तादी र्दोसा, जे वुत्ता ते तु गच्छतो तस्स। अथवा पहले वंदमान को पीछे वंदना करने आदि से कलह उत्पन्न
एगागिस्स वि न भवे, इति दूरगते वि उद्दिसणा॥ होता है।
जो मिथ्यात्व आदि दोष कहे गए हैं वे उस एकाकी जाते हुए २९८१. अधिकरणस्सुप्पत्ती, जा वुत्ता, पारिहारियकुलम्मि। मुनि के नहीं होते (क्योंकि वह तत्व को जानने वाला है, संविग्न
सम्ममणाउटुंते, अधिकरण ततो समुप्पज्जे॥ है।) इसलिए गुरु के दूर चले जाने पर भी उसका उद्देशन होता प्रातिहारिककुल में कलह की उत्पत्ति के जो कारण बताए
गए हैं, उनका सम्यग् अनावर्तन (परिवर्जन) न करने पर २९७६. गीतपुराणोवढे, धारंतो सततमुद्दिसंतं तु।। अधिकरण उत्पन्न होता है।
आसण्णं उद्दिस्सति, पुव्वदिसं वा सयं धरए॥ २९८२. अहिगरणे उप्पन्ने, अवितोसवियम्मि निग्गयं समणं। २९७७. चोदिज्जंतो जो पुण, उज्जमिहिति तं पि नाम बंधंति। __ जे सातिज्जति भुंजे, मासा चत्तारि भारीया।।
सेसेसु न उद्दिसणा, इति भयणा खेत्तवितिगिढे॥ अधिकरण उत्पन्न होने पर, जिसके साथ अधिकरण हुआ एक मुनि गीत है-सूत्रार्थनिष्पन्न है तथा पुराण है-- है, उसको अतोषित कर (उपशांत किए बिना) जो श्रमण निर्गत पश्चात्कृत्श्रमणभाव है। उसके मूल आचार्य क्षेत्र से दूर हैं। वह होता है, उसको जो मुनि ग्रहण करता है, उसके साथ भोजन निष्क्रमणभाव से अन्य आचार्य के पास उपस्थित हुआ। वह करता है उसको प्रायश्चित्त आता है चार गुरुमास का। सतत अपने मूल आचार्य का अवधारण करता हुआ कहता २९८३. सगणं परगणं वा वि, संकंतमवितोसिते। है-मेरे वे ही आचार्य हैं। तब जिनके पास उपस्थित हुआ है वे
छेदादि वणिया सोही, नाणत्तं तु इमं भवे॥ उसको अन्य आसन्नस्थ संविग्न आचार्य का उद्देशन करते हुए अधिकरण को उपशांत किए बिना जो मुनि स्वगण अथवा कहते हैं-वे ही तुम्हारे आचार्य हैं। अथवा वह मुनि स्वयं परगण में संक्रमण करता है, उसके लिए छेद आदि का प्रायश्चित्त पूर्वदिक्-मूल आचार्य की दिशा को धारण करे। उसको उद्दिष्ट कल्पाध्ययन में वर्णित है, उसमें नानात्व यह है। करने की आवश्यकता नहीं होती।
२९८४. मा देह ठाणमेतस्स, पेसवे जई तू गुरू। यदि यह जान लिया जाता है कि इस प्रकार प्रेरित किए
चउगुरू ततो तस्स, कहेति य चऊ लहू॥ जाने पर संविग्न हो जाएगा, तो उसे उद्दिष्ट करते हैं-कहते हैं, वे अधिकरण कर जो साधु अन्यत्र गया है, उसके लिए यदि तुम्हारे आचार्य हैं। शेष मुनियों को उद्देशना नहीं दी जाती। इस आचार्य संदेश देते हैं या भेजते हैं कि इसको कोई स्थान न दें, तो प्रकार क्षेत्रविकृष्ट संबंधी यह भजना है, विकल्प है।
आचार्य को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जिस गच्छ में २९७८. एमेव य कालगते, आसण्णं तं च उद्दिसति गीते। वह मुनि गया है और वहां भी वह प्रेषित संदेशवाहक यदि यह
पुव्वदिसि धारणं वा, अगीत मोत्तूण कालगतं॥ बात कहता है तो आचार्य को चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता इसी प्रकार मूलाचार्य के कालगत हो जाने पर यदि वह गीतार्थ है तो जो आसन्न-निकटस्थ आचार्य हैं उनको दे दिया २९८५. ओधाणं वावि वेहासं, पदोसा जं तु काहिती। जाता है अथवा पूर्वदिशा-पूर्व आचार्य को धारण किया जाता है।
मूलं ओधावणे होति, वेहासे चरिमं भवे॥ यदि अगीतार्थ है तो कालगत को छोड़कर अन्य आचार्य को वह मुनि प्रद्वेषवश अवधावन कर सकता है अथवा फांसी धारण करना होता है।
लगाकर मर सकता है, ऐसी स्थिति में अवधावन करने पर २९७९. वितिगिट्ठा समणाणं अव्वितिगिट्ठा य होति समणीणं। आचार्य को मूल प्रायश्चित्त तथा मर जाने पर चरम प्रायश्चित्त ___मा पाहुडं पि एवं, भवेज्ज सुत्तस्स आरंभो॥ अर्थात् 'पारांचित' प्रायश्चित्त आता है।
व्यतिकृष्ट श्रमणों के और अव्यतिकृष्ट श्रमणियों के दिग् २९८६. तत्थण्णत्थ व वासं, न देंति मे ण वि य नंदमाणेणं । होती है, यह दो सूत्रों में कही गई है। यह सुनकर प्राभृत-कलह न
नंदति ते खलु मए, इति कलुसप्पा करे पावं ॥ हो इसलिए सूत्र का आरंभ होता है। यह सूत्र- संबंध है।
वह मुनि सोचता है, अपने गण में अथवा अन्यत्र कोई मुझे २९८०. सेज्जासणातिरित्ते, हत्थादी घट्ट भाणभेदे य। वास-स्थान नहीं देता। मैं उनको चाहता हूं, पर वे मुझे नहीं
वंदंतमवंदंते, उप्पज्जति पाहुडं एवं॥ चाहते (महा प्रद्वेषवश वे मेरा पीछा नहीं छोड़ते) यह सोचकर वह
शय्या, वस्त्र आदि अतिरिक्त रखने से, हाथ-पैर आदि से कलुषात्मा पाप-भयंकर पाप कर सकता है। संघट्टन होने पर क्षमापना न करने से, पात्र आदि के टूट जाने पर,
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