Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 359
________________ ३२० सानुवाद व्यवहारभाष्य अनुलोम वचनों से उसे अनुकूल करे। 'सजाति सजाति ३५३८. अंतो परिठावंते, बहिया य वियारमादीसु लहुगो। को अनुकूल करता है'-इस न्याय से स्वजातिवालों से उसे अनुकूल अन्नतरं उवगरणं, दिलृ संका ण घेच्छंति॥ करे। इतने पर भी वह नहीं मानता है तो अभियोग-मंत्र आदि का ३५३९. किं होज्ज परिट्ठवितं, पम्हुटुं वावि तो न गेण्हती। अथवा निमित्त का प्रयोग करना चाहिए। अथवा बंधन का प्रयोग किं एयस्सऽन्नस्स व, संकिज्जति गेण्हमाणो वि॥ कर प्रभात होने पर व्यवहार-राजकुल में उसे ले जाना चाहिए। गांव में अथवा विचारभूमी में कोई उपधि भूल जाए तो ३५३३. मा णे छिवसु भाणाइं, मा भिंदिस्ससि णेऽजत!। प्रायश्चित्त है लधुमास। अन्यतरत् जघन्य आदि उपकरण देखकर दुहतो मा य वालेंति, थेरा वारेंति संजए। शंका हुई और शंका होने पर उसका ग्रहण नहीं किया। शंका ऐसे यदि गृहस्वामी साधुओं के भांडों को बाहर निकालने का हुई कि क्या किसी ने इसका परिष्ठापन किया है अथवा विस्मृत प्रयत्न करता है तो उसे कहे-हे अयत! तुम हमारे पात्रों को मत । हुआ है। वे उस उपकरण को ग्रहण नहीं करते। उनके मन में छुओ। उन्हें तुम फोड़ मत देना। यदि मुनि उसे कठोर वचन कहे शंका होती कि यह वस्तु इसकी है अथवा अन्य की। यदि अपनी तब स्थविर--आचार्य उनका निवारण करते हुए कहते हैं-तुम गिरी हुई वस्तु को ग्रहण कर रहा है अथवा परकीय वस्तु को। इस दोनों ओर से उसे मूर्ख मत बनाओ। तुम उससे वसति भी लेते। प्रकार शंका संभव है। इसका प्रायश्चित्त है चार लघुमास। यदि हो और परुष वचन भी कहते हो, ऐसा मत करो। वह परकीय है, निःशंकित है, उसे उठाता है तो चार गुरुमास का ३५३४. अहवा बेंति अम्हे ते, सहामो एस ते बली। न सेहेज्जावराधं ते, तेण होज्ज न ते खमं॥ ३५४०. थिग्गल धुत्तापोत्ते, बालगचीरादिएहि अधिगरणं। अथवा उसे कहे-हम तुम्हारे अपराध सहन करते हैं। परंतु बहुदोसतमा कप्पा, परिहाणी जा विणा तं च॥ यह बलवान् है। यह तुम्हारा अपराध सहन नहीं करेगा। उस (विस्मृत वस्त्र को ग्रहण न करने से दोष) अवस्था में वह जो करेगा तुम उसको सहन नहीं कर पाओगे। गृहस्थ उस कपड़े को कारी आदि लगाने से काम में ले ३५३५. सो य रुट्ठो व उद्वेत्ता, खंभं कुडं व कंपते। सकते हैं। उसे धोकर पट्टि आदि के रूप में अथवा बालकों के योग्य वस्त्र बना देते हैं इस प्रकार के अधिकरण होते हैं। 'कल्प' पुव्वं व णातिमित्तेहिं, तं गति पहूण वा॥ (इतना कहने पर भी यदि गृहस्वामी अन्यथा करने का विस्मृत हो जाने पर उनको ग्रहण न करने पर बहुत दोष लगते हैं। उस उपकरण के बिना दूसरे कल्प की मार्गणा से सूत्रार्थ की हानि प्रयत्न करता है) तो पहले वह गृहस्वामी के ज्ञाति-मित्रों को होती है। कहकर उसे अनुकूल बनाने का प्रयत्न करता है और यदि वह ३५४१. एते अण्णे य बहू, जम्हा दोसा तहिं पसज्जंती। नहीं मानता है तो वह बलवान् मुनि रुष्ट हुए व्यक्ति की भांति ___ आसन्ने अंतो वा, तम्हा उवहिं न वोसिरए।। उठता है और खंभे को अथवा भींत को मुष्टि प्रहार कर उसे ये कथित दोष तथा अन्य बहुत दोष उससे उत्पन्न होते हैं। प्रकंपित करते हुए धमकी देता है। इसलिए ग्राम के बाहर आसन्न प्रदेश में अथवा गांव में उपधि का ३५३६. गहितऽन्नरक्खणट्ठा, वइसुत्तमिणं समासतो भणियं। विस्मृति के कारण व्युत्सर्जन न करे। उवधी सुत्ता उ इमे, साधम्मिय तेण रक्खट्ठा ।। ३५४२. निस्संकितं तु नाउं, विच्चुयमेयं ति ताधे घेत्तव्वं । अन्य अर्थात् कार्पटिक आदि से रक्षा करने के लिए गृहीत संकादिदोसविजढा, नाउं वप्पेंति जस्स वयं॥ अवग्रह विषयक वाक्सूत्र है, जो संक्षेप में कहा गया है। ये उपधि जब यह निःशंकित रूप से ज्ञात हो जाए कि यह संबंधी सूत्र साधर्मिक, स्तेन से रक्षा के निमित्त उपन्यस्त हैं। यह विच्युत-विस्मृति से गिरा हुआ उपकरण है तो उसे ग्रहण कर सूत्रसंबंध है। लेना चाहिए। ग्रहण कर शंका आदि के दोष से रहित होकर वह ३५३७. दुविधो य अधालहुसो, उपकरण जिसका है उसको जानकर उसे समर्पित कर दे। जघण्णतो मज्झिमो य उवधी तु।। ३५४३. समणुण्णेतराणं वा, संजती संजताण वा। अन्नतरग्गहणेणं, ___ इतरे उ अणुवदेसो, गहितं पुण घेप्पए तेहिं।। घेप्पति तिविधो तु उवधी तु॥ यह उपकरण सांभोजिक अथवा असांभोजिक संयतों का है यथालघुस्वक (एकांतलघुक) उपधि के दो प्रकार हैं-जघन्य अथवा संयतियों का है, उसको लेकर वह जिसका है उसे दे देना और मध्यम। अन्यतरग्रहण करने से तीन प्रकार के उपधि का चाहिए। इतर अर्थात् जो पार्श्वस्थ आदि हैं उनका यह उपदेश है परिग्रहण किया जाता है। कि जिसका वह उपकरण गिरा है, उसी को वह देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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