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आठवां उद्देशक
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लघुमास तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। कोई रुष्ट होकर लिए प्रस्थित हैं, अथवा ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए विकालवेला वहां से निकाल भी देता है।
में जाना, अन्य वसति में चौरभय, श्वापदभय है, मशकों का ३५२०. एवमदिण्ण वियारे, दिण्णवियारे वि सभ-पवादीसु। उपद्रव हो अथवा शीत और वर्षा को सहन करना कष्टप्रद हो-इन
तण-फलगाणुण्णाता, कप्पडियादीण जत्थ भवे॥ कारणों से अधिकृत स्वामी की अनुज्ञा के बिना भी उस वसति में ३५२१. ताणि वि तु न कप्पंती,
रहा जा सकता है। अणणुण्णवितम्मि लहुगमासो उ। ३५२६. एतेहि कारणेहिं, पुव्वं पेहित्तु दिट्ठऽणुण्णाते। इत्तरियं पिन कप्पति,
ताधे अयंति दिढे, इमा तु जतणा तहिं होती।। जम्हा तु अजाइतोग्गहणं॥ उन कारणों से पहले उच्चार आदि भूमियों की प्रत्युपेक्षा इसी प्रकार अदत्त-अनुज्ञात विचार-स्थान के विषय में कर दृष्ट परिजन की अनुज्ञा ले ले। वे उस वसति में रहें। दृष्ट जानना चाहिए। जो दत्तविचार अर्थात् सभा, प्रथा, मंडप आदि परिजन की यह यतना है। सर्वसाधारण स्थान हैं, जहां कार्पटिकों के लिए तृण, फलक ३५२७. पेहेत्तुच्चारभूमादी, ठायंति वोत्तु परिजणं। आदि अनुज्ञात हैं, फिर भी उनके स्वामी की अनुज्ञा लिए बिना
अच्छामो जाव सो एती, जाईहामो तमागतं॥ उनका ग्रहण नहीं कल्पता। फिर भी यदि कोई अनुज्ञा के बिना उच्चारभूमी आदि की प्रत्युपेक्षा कर परिजन को बताकर उनको ग्रहण कर लेता है तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वहां रह जाए। उनसे कहे-हम गृहस्वामी के आने तक यहां रहेंगे। कहा है-अयाचित अवग्रह इत्वरिक-क्षणमात्र के लिए भी नहीं उसके आने पर हम उसकी अनुज्ञा ले लेंगे। कल्पता।
३५२८. वयं वण्णं च नाऊणं, वयंति वग्गुवादियो। ३५२२. जावंतिय दोसा वा, अदत्तनिच्छुभण दिवस-रातो वा।
सभंडावेतरे सेज्जं, अप्पंदंति निरंतरं।। एते दोसे पावति, दिन्नवियारे वि ठायते॥ गृहस्वामी का वय और वर्ण को जानकर प्रिय और सुंदर
दत्त विचार अर्थात् सार्वजनिक स्थान में भी अनुज्ञा के बोलने वाला मुनि उससे बात करे और शेष मुनि अपने उपकरणों बिना ठहरने पर यावन्तिकदोष (अस्वामित्व का दोष), अदत्तग्रहण के साथ निरंतर वसति को व्याप्त कर ले, इधर-उधर घूमते रहे। का दोष तथा सार्वजनिक स्थान आदि का स्वामी रुष्ट होकर रात्री ३५२९. अब्भासत्थं गंतूण, पुच्छए दूरए तिमा जतणा। में अथवा दिन में वहां ठहरे हुए साधुओं का निष्कासन कर सकता
तद्दिसमेंत पडिच्छण, पत्तेय कधेति सब्भावं ।।
यदि गृहस्वामी निकटवर्ती हो तो वहां जाकर उससे पूछ ३५२३. किन्नु अदिन्नवियारे, कोट्ठारादीसु जत्थ तणफलगा। लें। यदि दूर है तो यह यतना है। जिस दिशा से वह आता हो उस
- रक्खिज्जंते तहियं, अणणुण्णाए न ठायंति॥ दिशा में प्रतीक्षा करे। उसके आने पर सद्भाव यथार्थ बात बताए।
अदत्तविचार अर्थात् कोष्ठागार आदि जहां तृण, फलक ३५३०. बिले न वसिउं नागो, पातो गच्छामु सज्जणा। आदि की रक्षा की जाती है, उनमें भी अनुज्ञा के बिना साधु नहीं
निरत्थाणं बहिं दोसा, जाते मा होज्ज तुज्झ वी।। रहते।
गृहस्वामी से वह मुनि कहे-बिल में सर्प की भांति तुम्हारे ३५२४. दोसाण रक्खणट्ठा, चोदेति निरत्थयं ततो सुत्तं। इस आश्रय में रातभर रहकर प्रातः चले जाएंगे। वह न माने तो
भण्णति कारणियं खलु, इमे य ते कारणा होति॥ स्वजनों से कहलवाए। न मानने पर कहे-हम निष्कासित होने पर इन स्थानों में रहने का कारण है स्वयं को दोषों अर्थात् जो दोष होंगे, उन सबके भागी तुम न हो जाओ। प्रायश्चित्त के प्रसंगों से बचाना, रक्षा करना। प्रश्न होता है-इस ३५३१. जदि देति सुंदरंतू,अध उ वदिज्जाहि नीह मज्झ गिहा। स्थिति में सूत्र निरर्थक हो जाएगा। आचार्य कहते हैं-यह सूत्र
अन्नत्थ वसधि मग्गह, तहियं अणुसट्ठिमादीणि ।। कारिणक है। ये वे कारण होते हैं।
यदि गृहस्वामी अनुज्ञा दे तो अच्छा है। यदि वह कहे-मेरे ३५२५. अद्धाणे अट्ठाहिय, ओमऽसिवे गामऽणुगामवियाले। घर से निकल जाओ। अन्यत्र जाकर वसति की मार्गणा करो। तब
तेणा सावयमसगा, सीतं वासं दुरहियासं।। अनुशिष्टि आदि करे, धर्मकथा आदि का प्रयोग करे।
साधु मार्गगत हैं अथवा अष्टांहिक उत्सव देखने आए हैं ३५३२. अणुलोमणं सजाती, सजातिमेवेति तह वि उ अठंते। अथवा अवमौदर्य, अशिव आदि की संभावना से अन्य देश के
अभियोगनिमित्तं वा, बंधण गोसे य ववहारो॥ १. इत्तिरियंपि न कप्पइ अविदिन्नं खलु परोग्गहादीसु ।
२. आदि शब्द से चतुःशाला, देवकुल, गोष्ठिक आदि के घर जहां चिट्ठित्तु निसीयतु वं तइयव्वय रक्खणट्ठाए ।।
गोष्ठिक एकत्रित होते हैं।
है।
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