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सातवां उद्देशक दंडधारी की बात किसी ने न सुनी हो तो यहां गंडक' का दृष्टांत जानना चाहिए। ३१७४. जध गंडगमुग्घुटे, बहूहि असुतम्मि गंडए दंडो।
अह थोवेहिं न सुतं, निवयति तेसिं ततो दंडो॥
जैसे गंडक उद्घोषणा करता है और यदि बहुत सारे लोग उसको सुन नहीं पाते तो दंड का भागी गंडक होता है। और यदि थोड़े लोग उसको नहीं सुन पाते तो न सुनने वालों पर दंड का निपात होता है, वे दंड के भागी होते हैं। ३१७५. एविध वी दट्ठव्वं, दंडधरो होति दंडो तेसिं च।
__ आवेदेउं गच्छति, तमेव ठाणं तु दंडधरो॥
इसी प्रकार काल-प्रत्युपेक्षक दंडधर की बात यदि बहुत साधुओं ने नहीं सुनी है तो दंडधर दंड का भागी होता है और यदि थोड़े साधुओं ने नहीं सुनी है तो वे न सुनने वाले साधु दंड के भागी होते हैं। दंडधर आवेदन कर अपने उसी स्थान पर चला जाता है। १७६. ताहे कालग्गाही, उठेति गुणेहिमेहि जुत्तो तु।
पियधम्मो दढधम्मो, संविग्गो वज्जभीरू य॥ ३१७७. खेयण्णो य अभीरू, एरिसओ सो उ कालगाही तु।
उढेति गुरुसगासं, ताधे विणएण सो एति॥ दंडधर जब अपने स्थान पर आ जाता है तब कालग्राही काल-ग्रहण के लिए उठता है। वह इन गुणों से युक्त होता है-प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न, वज्रभीरू-पापभीरू, खेदज्ञकालविधि का सम्यक् ज्ञाता, अभीरू। ऐसा होता है कालग्राही। वहां से उठकर वह गुरु के साथ स्थापनागुरु के पास विनयपूर्वक आता है। ३१७८. तिण्णि य निसीहियाओ, नमणुस्सग्गो य पंचमंगलए। .
कितिकम्मं तह चेव य, काउं कालं तु पडियरती।।
आता हुआ वह कालग्राही तीन नैषेधिकियां (आसन्न, दूर और मध्य) करता है, निकट आकर 'नमः क्षमाश्रमणेभ्यः' कहता हुआ नमस्कार करता है, फिर कायोत्सर्ग कर, पांच मंगलिक से उसे संपन्न करता है। फिर कृतिकर्म करता है। तदनंतर प्रादोषिक काल का प्रतिचरण करता है-कहता है, आप आदेश दें, हम प्रादोषिक काल का ग्रहण करें। ३१७९. थोवावसेसियाए, संझाए ठाति उत्तराहुत्तो।
दंडधरो पुव्वमुहो, ठायति दंडंतरा काउं॥
जब संध्या कुछ अवशिष्ट रहती है, थोड़ी रह जाती है तब कालग्राहक उत्तराभिमुख होकर बैठता है। दंडधर पूर्वाभिमुख होकर बैठता है। अपने दंड को अपांतराल में रख देता है। ३१८०. गहणनिमित्तुस्सग्गं, अट्ठस्सासे य चिंतितुस्सारे।
चउवीसग दुमपुप्फिय, पुब्विग एक्केक्क य दिसाए॥ १. गंडक-ग्रामादेश की सार्वजनिक घोषणा करने वाला।
कालग्रहण के निमित्त कायोत्सर्ग किया जाता है। फिर आठ श्वासोच्छ्वास तक मन से नमस्कार का चिंतन कर कायोत्सर्ग को संपन्न कर दिया जाता है। फिर चतुर्विंशतिस्तव, दुमपुष्पिका, श्रामण्यपूर्विका तथा क्षुल्लिकाचार कथा का पहला श्लोक-इनका मन से स्मरण करे। यह एक दिशा की बात हुई। इसी प्रकार प्रत्येक दिशा में करे। ३१८१. बिंदू य छीयऽपरिणय, भय-रोमंचेव होति कालवधो।
भासंत मूढ संकिय, इंदियविसए य अमणुण्णो॥ बिंदु, छींक, अपरिणत, भय, रोमांच, वाणी से अन्य अध्ययन का कथन, मूढ़, शंकित, अमनोज्ञ, इंद्रियविषय-(इस गाथा की व्याख्या आगे की गाथाओं में।) ३१८२. गिण्हंतस्स उ कालं, जदि बिंदू तत्थ कोइ निवडेज्जा।
छीयं व परिणतो वा, भावो होज्जा सि अन्नत्तो। ३१८३. भीतो बिभीसियाए भासंतो वावि गेण्ह न विसुज्झे।
मूढो व दिसज्झयणे, संकितं वावि उवघातो॥ ३१८४. अन्नं व दिसज्झयणं, संकंतो होज्जऽणिट्ठविसए वा।
इवेंसु वा विरागं, जदि वच्चति तो हतो कालो। काल ग्रहण करते हुए दंडधर के ऊपर उदक बिंदु गिर जाए, कोई छींक दे, भाव अन्यथा परिणत हो जाए, विभीषिका को देखकर भयभीत हो जाए, रोमांचित हो जाए, वाणी से अध्ययन को बोलने लगे-इन स्थितियों में काल-ग्रहण शुद्ध नहीं होता। दिशा के अध्ययन में मूढ़ हो जाना, अथवा शंकित हो जाना-यह काल का उपघात है। दिशाध्ययन अन्यत्र संक्रांत हो गया, इंद्रिय-विषय अनिष्ट हो गया तथा यदि इष्टविषयों में विराग हो गया हो तो जानना चाहिए कि कालवध हो गया है। ३१८५. जदि उत्तरं अपेहिय, गिण्हत सेसा उता हतो कालो।
तीसु अदीसंतीसु वि, तारासु भवे जहण्णेणं ।। ... यदि उत्तर दिशा को देखे बिना अर्थात् पहले उत्तराभिमुख हुए बिना शेष दिशाओं को पहले ग्रहण करता है तो कालहत हो जाता है। जघन्यतः तीन ताराओं के न दिखने पर काल ग्रहण करता है तब भी काल हत हो जाता है। ३१८६. वासं च निवडति जई,
अहव असज्झाइयं व निवडेज्जा। एमादीहि न सुज्झे,
तविरहम्मी भवे सुद्धा॥ यदि वर्षा गिर रही हो अथवा अस्वाध्यायिक गिर रही हो, आदि-आदि कारणों से काल शुद्ध नहीं होता। इनके विपरीत अर्थात् इन दोषों के अभाव में काल शुद्ध होता है।
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