Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 339
________________ ३०० सानुवाद व्यवहारभाष्य जाता है कि वे मुनि ज्ञात हैं अथवा अज्ञात, उस ग्राम के परिचित यदि तुल्यवयवाली संयतियों का अभाव हो तो गण अर्थात् थे अथवा अपरिचित। ग्राम का परिचय होने पर वे यदि कालगत मल्लगण, हस्तिपालगण, कुंभकारगण का सहयोग मांगे। न का परलिंग करते हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। मिलने पर भोजिक-ग्राम महत्तर, मुंगिक-हीनजाति वालों, संबर तथा आज्ञाभंग आदि दोष भी प्राप्त होते हैं। यहां भिक्षु का दृष्टांत आदि अर्थात् कचरा निकालनेवाले, नाखून काटने वाले, स्नानकारक, प्रक्षालक आदि इन सबसे शव परिष्ठापन के लिए ३२८७. अचियत्तमादि वोच्छेयमादि दोसा उ होंति परलिंगे। सहयोग मांगे। यदि ये बिना मूल्य दिए काम करना न चाहें तो जो अण्णात ओहि काले, अकते गुरुगा य मिच्छत्तं॥ अन्यचुंगिक हैं, उनसे कहें। वे भी यदि बिना मूल्य के परिष्ठापन ज्ञात होने पर यदि कलेवर का परलिंग किया जाता है तो । करना न चाहें तो बिना किनारी के वस्त्र देने की बात करे। उससे अप्रीति आदि तथा व्युच्छेद आदि दोष उत्पन्न होते हैं। अज्ञात भी उनकी इच्छा न हो तो किनारी वाले वस्त्रों को देकर उनके होने पर यदि कलेवर का परलिंग किया जाता है तो वह मृत मुनि सहयोग से मृत कलेवर का परिष्ठापन करे। स्वर्ग में अवधिज्ञान का प्रयोग कर यह सोच सकता है कि मैं इस ३२९३. अह रुंभेज्ज दारट्ठो, मुल्लं दाऊण णीणह। लिंग से देव बना हूं-वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। यदि अणुसट्ठादि तहिं पि, अण्णो वा भणती जदि।। 'काले अकृते'-समय पर कलेवर का परिष्ठापन न कर चले जाते यदि नगर द्वारपाल शव को नगरद्वार से ले जाने की आज्ञा हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। न दे और कहे कि मूल्य देकर शव को ले जाओ तब ३२८८. एगाणिओ उ जाधे, तरेज्ज विविंचिउं तयं सो उ। अनुशिष्टि-समझाए और धर्मकथा कहे। फिर भी यदि वह न माने ताधे य विमग्गेज्जा, इमेण विधिणा सहाए तु॥ और कोई धर्मकथा को सुनकर कहे दो मुनियों में एक कालगत हो गया और अब वह एकाकी ३२९४. मुंच दाहामहं मुल्लं, उवेहं तत्थ कुव्वती। उस मृत कलेवर को परिष्ठापन करने में समर्थ नहीं है तब वह इस अदसादीणि वा देती, सती साधारणं वदे। विधि से सहायकों की मार्गणा करे। ३२९५. जदि लब्भामु आणेमो, अलद्धे तं वियाणओ। ३२८९. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय सिद्धपुत्त सण्णी य। सो वि लोगरवाभीतो, मुंचते दारपालओ॥ सग्गामम्मि य पुव्वं, सग्गामे असति परगामे ।। छोड़ दे। मैं तुम्हारा मूल्य दे दूंगा। मुनि यह सुनकर कहने ३२९०. अप्पाहेति सयं वा, वि गच्छती तत्थ ठाविया अण्णं। वालों की उपेक्षा करे, उसे निषेध न करे। यदि ऐसा कहने वाला असती निरच्चए वा, काउं ताहे व वच्चेज्जा| वहां दूसरा न हो तो मुनि उस द्वारपाल को बिना किनारी वाला ३२९१. संविग्गादी ते च्चिय, असतीए ताधे इत्थिवग्गेणं। अथवा किनारी वाला कपड़ा दे। वह न चाहे तो उससे साधारण सिद्धी साविग संजति,किढि मज्झिमकाय तुल्ला वा॥ बात कहे-यदि हमें मिलेगा तो हम ले आएंगे। न मिलने पर तुम पहले वह अपने ग्राम में इस क्रम से मार्गणा करे-संविग्न, इस कलेवर के विज्ञायक हो-जिम्मेदार हो। यह सुनकर वह असंविग्न, सारूपिकसिद्धपुत्र और फिर संज्ञी अर्थात् श्रावक। द्वारपाल लोगों के आक्रोश से भयभीत होकर शव को ले जाने की स्वग्राम में इनका अभाव हो तो परग्राम में मार्गणा करनी चाहिए। अनुमति दे देता है। परग्राम में कोई जाता हो तो उसके साथ संदेश भेजना चाहिए। ३२९६. अण्णाए वावि परलिंग, जतणाए काउं वच्चती। उसके अभाव में कालगत के पास अन्य व्यक्ति को बिठाकर स्वयं उवयोगट्ठा नाऊणं, एस विधी असहायए।। अन्य ग्राम में जाए। यदि अन्य कोई कालगत के पास बैठने योग्य अज्ञात-अपरिचित होने पर कालगत का यतनापूर्वक न हो तो कालगत के कलेवर को निरव्यय-सुरक्षित स्थान में परलिंग कर चला जाता है। वह यतना है-इतने समय तक रखकर स्वयं अन्य ग्राम में जाए। वहां संविग्न आदि की मार्गणा कालगत का उपयोगलक्षण चेतना थी। यह जानकर परलिंग नहीं करे। यदि श्रावक पर्यंत कोई प्राप्त न हो तो स्त्रीवर्ग की मार्गणा किया। अब परलिंग करने में कोई दोष नहीं है। करे। इसका क्रम यह है-सारूपिका, सिद्धपुत्री, श्राविका, वृद्धा ३२९७. एतेण सुत्त न गयं, सुत्तनिवातो उ पंथ गामे वा। आर्या, मध्यवयवाली आर्या अथवा तुल्यवयवाली आर्या-इनके __ एगो व अणेगो वा, हवेज्ज वीसुभिता भिक्खू।। सहयोग से मृतमुनि के कलेवर का परिष्ठापन करे। प्रस्तुत सूत्र के आधार पर यह व्याख्या नहीं है। यह तो ३२९२. गण भोइए वि जुंगित, संबरमादी मुधा अणिच्छंते। सामाचारी के प्रकाशन के लिए की गई है। सूत्रनिपात मात्र इतना अणुसद्धिं अदसाइं, तेहि समं तो विगिंचेइ॥ ही है कि मार्ग में अथवा गांव में एक अथवा अनेक कालगत भिक्षु १. परलिंगकरणं इति तस्य उपधिग्रहणम्। गृहीते चोपकरणे परलिंगमेव भवति। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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