________________
३१४
सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रत्येक साधु जहां संस्तारक की मार्गणा करता है, लाता है, ३४६३. नाऊण सुद्धभावं, थेरा वितरंति तं तु ओगासं। वहां यह आभवन विधि कथित है। यदि प्रत्येक मुनि को संस्तारक
सेसाण वि जो जस्स उ, पाउग्गो तस्स तं देति॥ प्राप्त नहीं होता तब साधुओं का समुदाय उसकी मार्गणा करता स्थविर अर्थात् आचार्य प्रेष्यमाण के शुद्धभाव को जानकर
उसको अवकाश वितरित करते हैं। शेष मुनियों को भी जिसके ३४५७. वंदेणं तह चेव य, गहणुण्णवणाइ तो विधी एसो।।
नवरं पुण नाणत्तं, अप्पिणणे होति नातव्वं॥ ३४६४. खेल निवात पवाते. काल गिलाणे य सेह पडियरए। - साधु समुदाय के लिए भी संस्तारक की मार्गणा, ग्रहण - समविसमे पडिपुच्छा, आसंखडिए अणुण्णवणा।। तथा अनुज्ञापना आदि के विषय में वही पूर्वोक्त विधि है। उसके जिसके स्थान-विशेष के कारण श्लेष्मा बढ़ता है, उसे अर्पण में नानात्व ज्ञातव्य है।
आचार्य अवकाशांतर की अनुज्ञा देते हैं। निवात वाले को प्रवात ३४५८. सव्वे वि दिट्ठरूवे करेहि पुण्णम्मि अम्ह एगतरो।। की और प्रवात वाले को निवात की अनुज्ञा, कालग्रही के द्वारमूल,
__अण्णो वा वाघातो, अप्पेहिति जं भणसि तस्स॥ ग्लान और शैक्ष के लिए प्रतिचारक, सम-विषम भूमी वाले को ___संस्तारकस्वामी को कहते हैं-तुम हम सभी साधुओं को समतल भूमी, जो बार-बार जिसको प्रतिपृच्छा करता है, उसको भली प्रकार से देख लो, जान लो। वर्षाकाल पूर्ण होने पर हमारे उसके पास, आसंखडिक को अपने-अपने गुरु के पास बैठने की में से कोई एक साधु संस्तारक तुमको अर्पित कर देगा। यदि कोई अनुज्ञापना करते हैं। व्याघात होगा तो दूसरा मुनि तुम जिसको संदिष्ट करोगे उसको ३४६५. एवमणुण्णवणाए, एतं दारं इहं , परिसमत्तं। समर्पित कर देगा।
एगंगियादि दारा, एत्तो उहूं पवक्खामि।। ३४५९. एवं ता सग्गामे, असती आणेज्ज अण्णगामातो। इस प्रकार अनुज्ञापना द्वार यहां परिसमाप्त हुआ। इससे
सुत्तत्थे काऊणं, मग्गति भिक्खं तु अडमाणो॥ आगे एकांगिक आदि द्वारों की प्ररूपणा करूंगा। इस प्रकार अपने ग्राम में संस्तारक आनयन की विधि ३४६६. असंघतिमेव फलगं, घेत्तव्वं तस्स असति संघाइं। बतलाई गई है। स्वग्राम में संस्तारक के अभाव में अन्य ग्राम से
दोमादि तस्स असती, गेण्हेज्ज अधाकडा कंबी।। भी वह लाया जा सकता है। सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी संपन्न असंघातिम फलक ही ग्रहण करना चाहिए। उसके अभाव कर मुनि भिक्षा के लिए घूमता हुआ संस्तारक की मार्गणा करता में संघातिम फलक लिया जा सकता है। वह व्यादि फलक वाला
हो अर्थात् दो, तीन, चार फलकात्मक भी ग्रहण किया जा सकता ३४६०. अद्दिद्वे सामिम्मि उ, वसिउं आणेति बितियदिवसम्मि। है। इस प्रकार के फलक संघातात्मक संस्तारक के अभाव में
खेत्तम्मी उ असंते, आणयणं खेत्तबहिया उ॥ यथाकत कंबी ( ) से संस्तारक बना ले। यदि संस्तारकस्वामी वहां दिखाई न दे तो उसी ग्राम में ३४६७. दोमादि संतराणि उ, करेति मा तत्थ तू णमंतेहिं। रहकर दूसरे दिन संस्तारक की अनुज्ञा लेकर उसे ले आए। यदि
संथरए अण्णोण्णे, पाणादिविराधणा हुज्जा॥ स्वक्षेत्र में संस्तारक प्राप्त न हो तो अपने क्षेत्र से बाह्य अन्य क्षेत्र द्वि आदि नमनशील फलकों को सांतर कर संस्तारक बनाता से भी लाया जाए।
है। वह इसलिए कि नमनशील फलकों के अन्योन्य संस्तारक से ३४६१. सव्वेहि आगतेहिं, दाउं गुरुणो उ सेस जहवुहूं। प्राण आदि की विराधना न हो।
संथारे घेत्तूणं, आवासे होतऽणुण्णवणा॥ ३४६८. कुयबंधणम्मि लहुगा, विराधणा होति संजमाताए। सभी मुनि संस्तारकों को लेकर आ जाने पर पहले गुरु को
सिढिलिज्जंतम्मि जधा, विराधणा होति पाणाणं ।। तीन संस्तारक दे, फिर यथावृद्ध-यथा रत्नाधिक के क्रम से ३४६९. पवडेज्ज व दुब्बद्धे, विराधणा तत्थ होति आयाए। संस्तारक वितरित करे। संस्तारकों को लेकर फिर अवकाश
जम्हा एते दोसा, तम्हा उ कुयं न बंधेज्जा।। स्थान की अनुज्ञापना होती है।
कुच बंधन वाले अर्थात् हिलने-डुलने वाले, शिथिल बंधन ३४६२. जो पुव्व अणुण्णवितो, पेसिज्जंते ण होति ओगासे। वाले संस्तारक को ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त है चार लघुमास
हेट्ठिल्ले सुत्तम्मि, तस्सावसरो इहं पत्तो।। का तथा इससे संयमविराधना और आत्मविराधना दोनों होती हैं।
जो पहले अधस्तनसूत्र अर्थात् प्रथम पिंडसूत्र में प्रेष्यमाण । शिथिलबंधन के कारण प्राणियों की विराधना होती है-यह के लिए अवकाश अनुज्ञापित नहीं हुआ है उसका अब अवसर संयमविराधना है। दुर्बद्ध होने पर सोने वाला गिर सकता है यह प्राप्त है।
आत्मविराधना है। ये दोष होते हैं, इसलिए कुच अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org