Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 349
________________ ३१० सानुवाद व्यवहारभाष्य झुषिर तृण लेना प्रकल्प है। बिना प्रयोजन झुषिर या अझुषिर प्राप्ति दुर्लभ होती है। क्षेत्र और काल के आधार पर उसकी यह तृण लेना विकल्प है। मार्गणाविधि बताई गई है। ३४०४. जध कारणे तणाई, उडुबद्धम्मि उ हवंति गहिताई। ३४१०. उडुबद्धे कारणम्मि, अगेण्हणे लहुग गुरुग वासासु। तध फलगाणि वि गेण्हे, चिक्खल्लादीहि कज्जेहिं॥ उडुबद्धे जं भणियं, तं चेव य सेसयं वोच्छं। जैसे कारणवश ऋतुबद्धकाल में तृण ग्रहण किए जाते हैं ऋतुबद्धकाल में यदि कारण में भी संस्तारक नहीं लिया वैसे ही चिक्खल आदि कारणों से फलक आदि भी लिए जाते हैं। ३४०५. अझुसिरमविद्धमफुडिय, ग्रहण न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अगुरुय-अणिसट्ठ-वीणगहणेणं। ऋतुबद्धकाल में जो यतना कथित है, वही वर्षावास में होती है। आयासंजम गुरुगा, शेष मैं आगे कहूंगा। सेसाणं संजमे दोसा॥ ३४११. वासासु अपरिसाडी, संथारो सो अवस्स घेत्तव्वो। फलकग्रहण में यतना-वह अझुषिर, अविद्ध, अस्फुटित, मणिकुट्टिमभूमीए, तमगिण्हण चउगुरू आणा॥ अगुरु-गुरुभाररहित, अनिसृष्ट-प्रातिहारिक होना चाहिए। वह वर्षाकाल में अपरिशाटी फलकस्वरूप संस्तारक अवश्य वीणा की भांति लघु होना चाहिए। वह गुरु-भारी होने पर ग्रहण करना चाहिए। वसति का फर्श मणिकुट्टिम भले हो, यदि आत्मविराधना और संयमविराधना होती है। उसका चतुर्गुरुक संस्तारक ग्रहण नहीं किया जाता है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त है। शेष प्रकार के फलकों में संयमदोष-संयम की तथा आज्ञाभंग आदि दोष उत्पन्न होते हैं। विराधना होती है। (और उसमें प्रत्येक के लिए चार-चार लघुमास ३४१२. पाणा सीतल कुंथू, उप्पायग दीह गोम्हि सिसुणागे। का प्रायश्चित्त है।) पणए य उवधि कुत्थण, मल उदकवधो अजीरादी॥ ३४०६. अझुसिरमादीएहिं, जा अणिसटुं तु पंचिगा भयणा। काल की शीतलता से भूमी में कुंथु आदि प्राणी सम्मूर्छित अध संथड पासुद्धे, वोच्चत्थे होति चउलहुगा।। होते हैं, तथा उत्पादक प्राणी-भूमी फोड़कर बाहर निकलते हैं अझुषिर आदि पदों में अनिसृष्ट पद पांचवां है। इनमें सांप, कर्णश्रृगाली, शिशुनाथ आदि दृग्गोचर होते हैं। पनक का विकल्पना इस प्रकार है। वसति में जो यथासंस्तृत संस्तारक है, उद्भव होता है। उपधि कुथित हो जाती है, मलिन हो जाती है। उसे ग्रहण करे। उसके अभाव में पार्श्वकृत को ग्रहण करे। इसमें विपर्यास करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। वर्षा में घूमने से अटकाय का वध होता है। उपधि के मलिन होने पर निद्रा के अभाव में अजीर्ण आदि रोग हो सकते हैं। ३४०७. अंतोवस्सय बाहिं, निवेसणा वाडसाहिए गामे। खेत्तंतो अन्नगामा, खेत्तबहिं वा अवोच्चत्थं ॥ ३४१३. तम्हा खलु घेत्तव्वो, तत्थ इमे पंच वण्णिता भेदा। यदि उपाश्रय में फलक का संस्तारक प्राप्त न हो तो, बाहर गहणे य अणुण्णवणा, एगंगिय अकुय पाउग्गे॥ से, निवेशन से, वाटक, गली से, गांव से, क्षेत्र से, अन्य ग्राम इसलिए फलकरूप संस्तारक अवश्य लेना चाहिए। उसके से, क्षेत्र के बाहर से लाना चाहिए। अविपर्यस्त आनयन करना ये पांच भेद वर्णित हैं-ग्रहण, अनुज्ञापना, एकांगिक, अकुच और चाहिए। प्रायोग्य। ३४०८. सुत्तं व अत्थं च दुवे वि काउं, ३४१४. गहणं च जाणएणं, सेज्जाकप्पो उ जेण समधीतो। भिक्खं अडतो तु दुवे वि एसे। उस्सग्गववातेहिं, सो गहणे कप्पिओ होति॥ लाभे सहू एति दुवे वि घेत्तुं, जिसने सम्यग्रुप से पढ़ लिया है शय्याकल्प को वह लाभासती एग दुवे व हावे॥ शय्याग्रहणविधि को जानने वाला मुनि संस्तार का ग्रहण कर सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी-दोनों कर, भिक्षाचरी में घूमते सकता है। जो उत्सर्ग और अपवाद के आधार पर ग्रहण करता हुए दोनों-भिक्षा और संस्तारक-की गवेषणा करे। दोनों की प्राप्ति है, वह कल्पिक होता है। होने पर यदि वह समर्थ हो तो दोनों को लेकर आए। संस्तारक की ३४१५. अणुण्णवणाय जतणा, गहिते जतणा य होति कायव्वा। गवेषणा में सूत्र अथवा सत्र और अर्थ-दोनों को गंवा देता है। अणुण्णवणाए लद्धे, बेंती पडिहारियं एयं।। ३४०९. दुल्लभे सेज्जसंथारे, उडुबद्धम्मि कारणे। अनुज्ञापना में यतना तथा गृहीत में यतना होती है, वह मग्गणम्मि विधी एसो, भणितो खेत्तकालतो॥ करनी चाहिए। अनुज्ञा में संस्तारक प्राप्त होने पर कहे-यह हम ऋतुबद्धकाल में प्रयोजन होने पर शय्या, संस्तारक की प्रातिहारिक ग्रहण कर रहे हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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