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आठवां उद्देशक
में)
३३८२. तध चेव उग्गहम्मी, अणुयत्तंतम्मि रायमादीणं। ३३८८. सो पुण उडुम्मि घेप्पति, संथारो वास वुडवासे वा। साधम्मि उग्गहम्मी, सुत्तमिणं अट्ठमे पढम।।
ठाणं फलगादी वा, उडुम्मि वासासु य दुवे वि।। पूर्वोक्त प्रकार से ही राजा आदि के अवग्रह का अनुवर्तन वह मुनि ऋतुबद्ध अथवा वर्षाकाल अथवा वृद्धावास के होने के कारण प्रस्तुत सूत्र साधर्मिक अवग्रह से संबंधित यह प्रायोग्य संस्तारक तथा स्थान ग्रहण करता है। ऋतुबद्धकाल में आठवें उद्देशक का प्रथम सूत्र है। यही पूर्वसूत्र का प्रस्तुत सूत्र से खुला स्थान तथा वर्षावास और वृद्धावास में निवातस्थान भी संबंध है।
ग्रहण करता है। ऋतुबद्धकाल में ऊर्णादिमय संस्तारक और ग्लान ३३८३. गाहा घरे गिहे या, एगट्ठा होति उग्गहे तिविधो।. आदि के लिए फलक आदि तथा वर्षावास में दोनों प्रकार के
उडुबद्धे वासासु य, वुड्ढावासे य नाणत्तं॥ संस्तारक ग्रहण करता है। गाहा, घर और गिह-ये तीनों एकार्थ हैं। इनके आधार पर ३३८९. उडुबद्ध दुविहगहणा, लहुगो लहुगा य दोस आणादी। अवग्रह भी तीन प्रकार का होता है- ऋतुबद्धसाधर्मिक अवग्रह,
झामित हिय वक्खेवे, संघट्टणमादि पलिमंथो॥ वर्षावाससाधर्मिक अवग्रह तथा वृद्धावास अवग्रह।
ऋतुबद्धकाल में द्विविध संस्तारक ग्रहण करे। इस संबंध में ३३८४. चाउस्सालादि गिह, तत्थ पदेसो उ अंतो बाहिं वा।। एक लघुमास तथा चार लघुमास का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि
ओवासंतर मो पुण, अमुगाणं दोण्ह मज्झम्मि|| दोष, जल जाने पर, व्याक्षेपण-चोरों द्वारा अपहृत हो जाने पर,
चतुःशाल आदि गृह कहलाता है। उसके प्रदेश ये होते संघट्टन आदि पलिमंथु....। (इसकी व्याख्या आगे की गाथाओं हैं-अंतर्, बहिर्, आसन्न, दूर, अवकाशांतर-अमुक दो के मध्य का भाग आदि।
.३३९०. परिसाडि अपरिसाडी, दुविधो संथारओ समासेण। ३३८५. खेत्तस्स उ संकमणे, कारण अन्नत्थ पट्ठविजंतो।
परिसाडी झुसिरेतर, एत्तो वोच्छं अपरिसाडिं।। पुव्वुद्दिढे तम्मि उ, उडुवासे सुत्तनिद्देसो॥ संस्तारक के संक्षेप में दो प्रकार हैं-परिशाटी तथा किसी कारणवश आचार्य ऋतुबद्धकाल में क्षेत्र का संक्रमण- अपरिशाटी। परिशाटी के दो भेद हैं-झुषिर तथा अझुषिर। अब मैं परिवर्तन करने की इच्छा से किसी को अन्यत्र प्रस्थापित करते अपरिशाटी के विषय में बताऊंगा। हैं। वह साधु पूर्वोद्दिष्ट स्थान विषयक विज्ञापना करता है। यही ३३९१. एगंगि अणेगंगी, संघातिमएतरो य एगंगी। प्रस्तुत सूत्र का कथन है।
अझुसिरगहणे लहुगो, चउरो लहुगा य सेसेसु॥ ३३८६. दीवेउं तं कज्जं, गुरुं व अन्नं व सो उ अप्पाहे। अपरिशाटी दो प्रकार का है-एकांगिक और अनेकांगिक।
ते वि य तं भूयत्थं, नाउं असढस्स वियरंति॥ एकांगिक दो प्रकार है-संघातिम तथा असंघातिम। अझुषिर
अपने प्रयोजन का प्रकाशन करते हुए वह गुरु अथवा संस्तारक के ग्रहण में प्रायश्चित्त है लघमास। शेष सभी के प्रत्येक अन्य-उपाध्याय आदि को संदेश कहलाता है। गुरु अथवा अन्य के चार-चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। . उस तथ्य को यथार्थ जानकर उस असठ मुनि को वह शय्या और ३३९२. लहुगा य झामियम्मि य, संस्तारक भूमी की आज्ञा दे देते हैं।
हरिते वि य होंति अपरिसाडिम्मि। ३३८७. अह पुण कंदप्पादीहि, मग्गती तो तु तस्स न दलंति।
परिसाडिम्मि य लहुगो, एयं तु पिंडसुत्ते, पत्तेय इहं तु वोच्छामि।।
आणादिविराधणा चेव॥ यदि वह कंदर्प आदि के निमित्त कुछ मार्गणा करता है तो अपरिशाटी संस्तारक जलने पर अथवा अपहृत हो जाने उसको वह नहीं देते। यह पिंडसूत्र की व्याख्या है। अब प्रत्येक पर प्रत्येक के चार लघुमास का प्रायश्चित्त है तथा परिशाटी के सूत्र की व्याख्या करूंगा।
जल जाने पर अथवा अपहृत हो जाने पर प्रत्येक का एक लघुमास
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