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सानुवाद व्यवहारभाष्य
३२७०. पउरण्णपाण पढमा, बितियाए भत्तपाण न लभंति।
ततियाए उवधिमादी, नत्थि चउत्थीय सज्झाओ।। ३२७१. पंचमियाय असंखड, छट्ठीय गणस्स भेदणं नियमा।
सत्तमिया गेलण्णं, मरणं पुण अट्ठमी बैंति।। इन आठ दिगविभागों में शव के परिष्ठापन से होने वाले हानि-लाभ
१.पश्चिम-दक्षिण में परिष्ठापन से प्रचुर भक्तपान की
२. दक्षिण दिशा में परिष्ठापन से भक्तपान का अभाव। ३. पश्चिम दिशा में परिष्ठापन से उपकरणों का अभाव। ४. दक्षिण-पूर्व दिशा में परिष्ठापन से स्वाध्याय का अभाव। ५. पश्चिम-उत्तर में परिष्ठापन से कलह होता है। ६. पूर्व दिशा में परिष्ठापन से निश्चित गच्छभेद। ७. उत्तर दिशा में परिष्ठापन से ग्लानत्व । ८. पूर्व-उत्तर दिशा में परिष्ठापन से अन्य मुनि के मरण का
हेतु।
२९८ कारण होते हैं। यदि स्थंडिल पहले ही प्रत्युपेक्षित होती तो रात्री में मृत मुनि के शव को रात्री में ही परिष्ठापित कर देते और तब ये सारे दोष नहीं होते। ३२६४. अह पेहिते वि पुव्वं, दिया व रातो व होज्ज वाघातो। ___ सावय-तेण भया वा, ढक्किय ताधे य अच्छाते॥
यदि पूर्वप्रेक्षित स्थंडिल में भी श्वापद अथवा चोर के भय से व्याघात उत्पन्न हो जाए अथवा रात्री में वसति के द्वार ढंके हुए हो तो शव को वहीं आस्थापित रखते हैं, परिष्ठापन नहीं करते। ३२६५. असती सुक्किल्लाणं, दिणकालगतं निसिं विवेचंति।
परिहारितं च पच्छाकडादि कोडी दुगेणं वा। मुनि दिन में कालगत हुआ। सफेद वस्त्र नहीं हैं तो शव का परिष्ठापन रात्री में करते हैं। रात्री में यदि शुक्ल वस्त्र प्राप्त नहीं हों तो पश्चात्कृत (पच्छाकड) से पाडिहारिय रूप में वस्त्र की याचना करे। यदि प्राप्त न हो तो कोटिद्विक से उसका उत्पादन करे, प्राप्त करे। ३२६६. असती नीणेतु निसिं, ठवेत्तु सागारिथंडिलं पेहे।
थंडिलवाघातम्मि वि, जतणा एसेव कातव्वा॥ यदि कोटिद्विक (विशोधिकोटि तथा अविशोधिकोटि) से भी शुक्ल वस्त्र प्राप्त न हो तो रात्री में ही शव का परिष्ठापन कर दे। शय्यातर को शव के पास स्थापित कर स्वयं साधु स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करे। यदि स्थंडिल का व्याघात हो तो पूर्वोक्त यतना करणीय होती है। ३२६७. महल्लपुरगामे वा, दिसा वाडग साहिओ।
इहरा दुविभागा तु, कुग्गामे सुविभाविया।।
बड़े नगर अथवा बड़े गांव में दिशाओं का विभाग कठिन होता है। उपाश्रय, वाटक अथवा गली से निर्धारण करना चाहिए। अन्यथा दुर्विभाग हो जाएंगे। छोटे ग्राम में दिशाओं का विभाजन सुखपूर्वक होता है। ३२६८. दिसा अवर दक्खिणा य,
अवरा य पच्छिम दक्खिणा पुव्वं । अवरुत्तरा य पुव्वा,
उत्तरपुव्वुत्तरा चेव॥ सबसे पहले पश्चिम-दक्षिण दिशा का कोण नैऋती दिशा का निरीक्षण करे। उसके अभाव में दक्षिण दिशा और उसके अभाव में पश्चिम दिशा का निरीक्षण करे। उसके अभाव में दक्षिण-पूर्व अर्थात् आग्नेयी, उसके अभाव में पश्चिम-उत्तर अर्थात् वायव्यी, उसके अभाव में पूर्व, उसके अभाव में उत्तर और उसके अभाव में उत्तर-पूर्व का निरीक्षण करे। ३२६९. समाधी अभत्तपाणे, उवगरणे झायमेव कलहो य।
भेदो गेलण्णं वा, चरिमा पुण कहते अण्णं ।।
३२७२. रत्ति दिसा थंडिल्ले, सिल बिंबा झामिते य उस्सण्णे।
छेत्त विभत्ती सीमा, सीताणे चेव ववहारो॥ यह द्वारगाथा है। इसमें छह द्वारों का उल्लेख है
१. रात्रीद्वार २. दिग्द्वार ३. स्थंडिलद्वार इसके तीन भेद हैं-शिलारूप, बिम्ब आदि तथा ध्यामित (दग्धभूमी) ४. उच्छन्नद्वार ५. क्षेत्रविभक्ति की सीमा ६.श्मशान। इनमें व्यवहार वक्तव्य है। (इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में।) ३२७३. लभमाणे वा पढमाए, असतीए वाघाते वा।
ताहे अन्नाए वि, दिसाए पेहेज्ज जयणाए।। दिग्द्वार-प्रथम दिशा यदि लभ्यमान हो तो उसमें स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करे। उसके अभाव में अथवा व्याघात हो जाने पर अन्य दूसरी दिशा में यतनापूर्वक स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करे। ३२७४. सिलायलं पसत्थं तु, रुक्खवुत्थादि फासुयं ।
झामं थंडिलमादी व, बिंबादीण समीव वा॥
स्थंडिलद्वार-शिलातल प्रशस्त होता है। अथवा वृक्षों के पास जहां महान् सार्थ विश्राम करता है। अथवा दग्ध प्रदेश अथवा करीषादि प्रदेश रूप स्थंडिल में अथवा बिम्ब-वृक्षों के समीप में परिष्ठापन करे। ३२७५. उस्सण्णा तिन्नि कप्पा उ, होति खेत्तेसु केसुई।
अथंडिला दिसासुं वा, ते वि जाणेज्ज पण्णवं॥
कई क्षेत्रों में बहुलता से आचीर्ण तीन कल्प होते हैं-अर्थात् तीनों दिशाओं में परिष्ठापन के कल्प होते हैं। प्रज्ञावान् मुनि उन स्थंडिलों तथा दिशाओं में अस्थंडिलों को जाने। ३२७६. खेत्त विभत्ते गामे, रायभए वा अदेंत सीमाए।
भोइयमादी पुच्छा, रायपधे सीममज्झे वा॥
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