Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 329
________________ २९० सानुवाद व्यवहारभाष्य ३१६१. जो होज्ज उ असमत्थो, बालो वुड्डो व रोगिओ वावि। ३१६७. एवं आवासा सेज्जमादि वितहं खलिते य पडिते य। सो आवस्सगजुत्तो, अच्छेज्जा निज्जरापेही॥ . जिंताण छीय जोती, व होज्ज ताधे नियत्तेति॥ जो असमर्थ, बाल, वृद्ध अथवा रोगग्रस्त होने के कारण . इस प्रकार आवश्यिकी, अशय्या आदि से संबंधित वितथ कायोत्सर्ग में स्थित होने में असमर्थ हों, वे निर्जरापेक्षी मुनि क्रिया करते हुए, स्खलित अथवा गिर पड़ते हुए, निर्गमन करते आवश्यक युक्त होकर बैठे। समय छींक आ जाए, प्रदीप की ज्योति का स्पर्श हो जाए तो ३१६२. आवस्सय काऊणं, जिणोवदिटुं गुरूवदेसेणं। व्याघात होता है, यह सोचकर वे दोनों काल-प्रत्युपेक्षक निवर्तित _तिनि थुती पडिलेहा, कालस्स इमो विधी तत्थ।। हो जाते हैं। जिनोपदिष्ट आवश्यक को गुरु के उपदेश से करके अंत में ३१६८. अह पुण निव्वाघातं, ताहे वच्चंति कालभूमिं तु। तीन स्तुतियां बोले। (पहली एक श्लोकात्मिका, दूसरी दो जदि तत्थ गोणमादी, संसप्पादीव तो एंति॥ श्लोकात्मिका और तीसरी तीन श्लोकात्मिका।) तदनंतर काल यदि निर्व्याघात हो तो वे कालभूमी में जाते हैं। वहां की प्रत्युपेक्षा करे। काल-प्रत्युपेक्षा की यह विधि है कालभूमी में यदि गाय आदि अथवा संसर्प-कीटक आदि आते हैं ३१६३. दुविधो य होति कालो, वाघातिम एतरो य नायव्वो। तो काल ग्रहण नहीं करते। वाघातो घंघसालाय, घट्टणं धम्मकहणं वा॥ ३१६९. एमादिदोसरहिते, संडासादी पमज्जिउ निविट्ठो। काल के दो प्रकार जानने चाहिए-व्याघातिम और इतर अच्छंति निलिच्छंतो, दो दो तु दिसा दुयग्गा वि॥ अर्थात् निर्व्याधात। घंघशाला (वह स्थान जहां अनेक कार्पटिक इन सभी दोषों से रहित कालग्रहणयोग्य प्रदेश में संडास रहते हैं।) में आने-जाने वालों के घट्टन से व्याघात होता है तथा आदि (स्थान-विशेष) का प्रमार्जन कर, कालग्रहणवेला की . धर्मकथा स्थान में वेलातिक्रम से व्याघात होता है। प्रतीक्षा करता हुआ काल-प्रत्युपेक्षक बैठ जाता है। दूसरा भी बैठ जाता है। दोनों दो-दो दिशाओं का निरीक्षण करते हए बैठे रहते ३१६४. वाघाते ततिओ सिं, दिज्जति तस्सेव तु निवेदंति। ___ इहरा पुच्छंति दुवे, जोगं कालस्स काहामो॥ ३१७०. सज्झायमचिंतेंता,कविहसिते विज्जु गज्जि उक्का वा। व्याघात की स्थिति में उन दो कालप्रत्युपेक्षकों को तीसरा कणगम्मि य कालवधो, दिद्वेऽदिढे इमा मेरा॥ अर्थात् उपाध्याय आदि दिया जाता है। वे उसी के आगे सारा वे काल-प्रत्युपेक्षक स्वाध्याय का चिंतन न करते हुए यदि निवेदन करते हैं। इतरथा व्याघात के अभाव में वे दोनों कपिहसित सुनते हैं, विद्युत् देखते हैं, गर्जना सुनते हैं, उल्का का कालप्रत्युपेक्षक गुरु को पूछते हैं कि हम यथायोग काल को ग्रहण निरीक्षण करते हैं अथवा कनक का निपतन देखते हैं तो कालवध करेंगे, उसके व्यापार में व्याप्त होंगे। होता है। दृष्ट-अदृष्ट की यह मर्यादा है। ३१६५. कितिकम्मे आपुच्छण, ३१७१. कालो संझा य तधा, दो वि समप्यति जध समं चेव। आवासिय खलिय पडिय वाघाए। तध तं तुलेंति कालं, चरमदिसं वा असज्झायं। इंदिय दिसा य तारा, संध्या रहते काल-ग्रहण प्रारंभ किया। कालग्रहण और वासमसज्झाइयं चेव॥ संध्या दोनों एक साथ समाप्त होते हों तो कालवेला की तुलना " निर्व्याघात की स्थिति में गुरु या आचार्य को कृतिकर्म करे। अथवा उत्तर आदि तीनों दिशाओं की संध्या देखे। वंदना करनी चाहिए। फिर कालग्रहण की पृच्छा--आज्ञा लेनी चरमदिशा यदि असंध्याक हो गई हो तो भी उसका ग्रहण सदोष चाहिए। यदि आवश्यक नहीं करता, स्खलित हो जाता है, गिर । नहीं होता। जाता है-यह काल का व्याघात है। इंद्रिय विषय अथवा दिशाएं ३१७२. नाऊण कालवेलं, ताधे उढेउ दंडधारी उ। विपरीत हों, तारा गिर रहे हों, अकाल में वर्षा हो रही हो अथवा गंतूण निवेदेती, बहुवेला अप्पसदं ति॥ अस्वाध्यायिक हो तो वह कालवध है। कालवेला का जानकार तदनंतर दंडधारी उठता है और ३१६६. कितिकम्मं कुणमाणो, आवत्तगमादियं तहिं वितहं।। प्रतिश्रय में जाकर निवेदन करता है कि काल की बहुत वेला है कुणति गुरूण व वितधं, पडिच्छती तत्थ कालवधो।।। इसलिए सभी अल्पशब्द अर्थात् मौनवत् हो जाएं। कृतिकर्म करता हुआ यदि आवर्त्त आदि वितथ-विपरीत ३१७३. ताधे उवउत्तेहिं, उ अप्पसद्देहि तत्थ होयव्वं। करता है अथवा गुरु वंदनक को विपरीतरूप में देता है, तब जदि न सुयत्थ केहिं वि, दिर्सेतो गंडएण तहिं।। कालवध होता है। तब सभी उपयुक्त साधु अल्पशब्द वाले हो जाएं। यदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

Loading...

Page Navigation
1 ... 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492