________________
सानुवाद व्यवहारभाष्य यदि प्रवासी पति की भार्या कालवेला में प्रतिदिन रोए तो ३२२०. एतेसामण्णतरे, असज्झाए जो करेति सज्झायं। जब तक वह रोना प्रारंभ न करे, तब तक अनागत में ही काल का
सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे।। ग्रहण किया जाता है। यदि प्रातःकाल में ही रोने लगे तो दिन में इन निरूपित अस्वाध्यायिकों में से किसी भी जाकर उसे कहा जा सकता है। यदि वह न माने और रोने वाली अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय किया जाता है तो उससे आज्ञाभंग, अनेक स्त्रियां हों तो उनको न कहकर 'उद्घाट कायोत्सर्ग' किया। अनवस्था, मिथ्यात्व तथा विराधना होती है। जाता है।
३२२१. बितियागाढे सागारियादि कालगत असति वुच्छेदे। और यदि कोई बालक रोने लगे और वह अव्यक्त बालक
एतेहि कारणेहिं, . जतणाए कप्पती काउं।। विस्वर स्वरों में अर्थात् अति आयास से रोने लगे तो प्राभातिक
अपवादपद में इन कारणों से अस्वाध्यायिक में भी काल का ग्रहण नहीं करना चाहिए। अन्य विस्वर स्वर से भी
यतनापूर्वक स्वाध्याय करना कल्पता हैकाल का उपहनन होता है तो फिर महान् रुदन तो काल का
१. आगाढ़योग के वहन करते समय। उपहनन करता ही है।
२. सागारिक आदि अर्थात् गृहस्थ के घर में प्रतिचारणा ३२१५. गोसे य पट्ठवेंते, छीते छीते तु तिन्नि वारा उ।
आदि के अनिष्ट शब्द सुनाई न दे इसलिए। आइण्ण पिसिय महियादि पहेणट्ठा दिसा पेहे ||
कारणवश यथाच्छंद के उपाश्रय में रहते समय उनकी प्रभात में स्वाध्याय की प्रस्थापना करते समय तीन बार
कल्पनाकल्पित सामाचारी सुनाई न दे, इसलिए। छींक आने पर तथा बिखरे हुए मांस के टुकड़े, महिका आदि
३. मुनि के कालगत हो जाने पर जागरण के निमित्त।
४. अभी-अभी जो श्रुत जिसके पास ग्रहण किया है अस्वाध्यायिक के निरीक्षण के लिए दिशाएं देखी जाती हैं।
उसके मर जाने पर उस श्रुत का व्युच्छेद न हो जाए इसलिए। ३२१६. सेज्जातर-सेज्जादिसु, छारादिट्ठाय विसिउ पेहेंति।
३२२२. अच्चाउलाण निच्चोउलाण तिण्ह परेणऽण्णत्थ उ, तत्थ जई तिण्णिवारा उ॥
मा होज्ज निच्चऽसज्झाओ। ३२१७. ताधे पुणो वि अण्णत्थ, गंतुं तत्थ वि य तिन्नि वारा तु।
अरिसा भगंदलादिसु, एवं नववारहते, ताधे पढमाए न पढ़ति ।।
इति वायण सुत्तसंबंधो॥ दिशाएं ही नहीं, मुनि शय्यातर के तथा अन्य वसति में क्षार
अर्श, भगंदर आदि रोगों से अत्याकुल मुनियों अथवा आदि के निमित्त प्रवेश कर वहां पिशित आदि अस्वाध्यायिक
नित्य ऋतुमती साध्वियों के नित्य अस्वाध्याय न हो-यह वाचना देखते हैं। तीन बार में यदि कुछ नहीं देखा जाता तो स्वाध्याय की
सूत्र का संबंध है। प्रस्थापना की जाती है। यदि वहां भी तीन बार स्वाध्याय उपहत
३२२३. आतसमुत्थमसज्झाइयं तु एगविध होति दुविधं वा। होता है तो अन्यत्र जाकर स्वाध्याय की प्रस्थापना करे। यदि वहां ,
एगविहं समणाणं, दुविधं पुण होति समणीणं ।। भी तीन बार काल का उपघात होता है तो इस प्रकार नौ बार
आत्मसमुत्थ अस्वाध्यायिक एक प्रकार का होता है अथवा स्वाध्याय का हनन होने पर प्रथम पौरुषी में नहीं पढ़ते।
दो प्रकार का होता है। एक प्रकार का श्रमणों के और दो प्रकार का ३२१८. पट्ठवितम्मि सिलोगे, घाणालोगा य वज्जणिज्जा उ।
श्रमणियों के।' सोणिययचिरिक्काणं, मुत्तपुरीसाण तह चेव।।
३२२४. धोतम्मि य निप्पगले, बंधा तिण्णेव होति उक्कोसा। स्वाध्याय की प्रस्थापना कर देने पर तथा श्लोकों का .
परिगलमाणे जतणा, दुविहम्मि य होति कायव्वा।। उच्चारण कर देने पर स्वाध्याय करने वालों को रक्त के स्तबकों
व्रण को धोकर निष्प्रगलित कर दिया, फिर भी यदि वह तथा मूत्र और मल आदि का अवलोकन तथा गंध का वर्जन करना
झरता है तो उस पर उत्कृष्टतः तीन बंध दिए जाते हैं। दोनों प्रकार चाहिए।
में अर्थात् व्रण और आर्तव (मासिक ऋतु) में वक्ष्यमाण यतना ३२१९. आलोगम्मि चिलिमिणी, गंधे अन्नत्थ गंतु पगरेंति। करनी चाहिए।
... एसो तू सज्झाओ, तविवरीतो असज्झाओ॥ ३२२५. समणो तु वणे व भगंदले व बंधेक्कगा उ वाएति। यदि रक्त आदि दीखते हों तो बीच में चिलमिली बांध दे।
तह वि गलंते छारं, छोढुं दो तिण्णि बंधा उ॥ गंध आती हो तो अन्यत्र जाकर स्वाध्याय करे। यह काल में होने श्रमण व्रण अथवा भगंदर, जो बहता हो, उस पर एक बंधन वाला स्वाध्याय है। इसके विपरीत अस्वाध्याय है।
बांधकर वाचना दे सकता है। फिर भी उसमें से रक्त बहता हो तो १. श्रमणों के भंगदर आदि विषयक। श्रमणियों के भगंदर आदि समुत्थ तथा ऋतुसंभव।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org