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सातवां उद्देशक
२८९ ३१४८. असिवोमाघतणेसुं, बारस अविसोधितम्मि न करेंति। ३१५४. जइ नत्थि असज्झायं, किं व निमित्तं तु घेप्पए कालो। झामित-वूढे कीरति, आवासियसोधिते चेव।।
तस्सेव जाणणट्ठा, भण्णति किं अत्थि नत्थि ति॥ अशिव, अवमौदर्य तथा आघात स्थानों में अनेक लोग शिष्य पूछता है यदि अस्वाध्यायिक नहीं है तो फिर काल कालगत होते हैं। उन स्थानों का विशोधन किए बिना वहां बारह को किस कारण से ग्रहण किया जाता है? आचार्य कहते वर्ष का अस्वाध्यायिक होता है। वहां स्वाध्याय नहीं किया जाता। हैं-अस्वाध्यायिक को जानने के लिए ही काल का ग्रहण किया वे स्थान यदि अग्नि से जल गए हों, अथवा पानी से प्लावित हो ।
जाता है कि अस्वाध्यायिक है या नहीं। गए हों तो वहां स्वाध्याय किया जा सकता है। श्मशान यदि लोगों ३१५५. पंचविधमसज्झायस्स, जाणणट्ठाय पेहए कालं। द्वारा आवासित हो गया हो, उसका शोधन कर लिया हो तो वहां
काए विहीय पेहे, सामायारी इमा तत्थ।। स्वाध्याय किया जा सकता है।
पांच प्रकार के अस्वाध्याय को जानने के लिए ही काल की ३१४९. डहरग्गाममयम्मी, न करेंती जा न नीणितं होति।।
नााणत हाति। प्रेक्षा की जाती है। शिष्य ने पूछा-काल-प्रेक्षा की विधि क्या है ? पुरगामे व महंते, वाडगसाहिं परिहरंति।।
आचार्य कहते हैं-काल-प्रेक्षा की यह सामाचारी है। छोटे गांव में कोई मर गया है और जब तक शव को बाहर
३१५६. चउभागऽवसेसाए, चरिमाए पोरिसीए उ। निष्कासित नहीं किया जाता तब तक स्वाध्याय वर्जित है। पुर
तओ तओ तु पेहेज्जा, उच्चारादीण भूमीओ।। अथवा बड़े गांव के वाटक तथा गली में कोई मरा हो तो उस
दिन की चरम पौरुषी का चतुर्भाग शेष रहने पर उच्चारवाटक या गली में स्वाध्याय का परिहार है।
प्रस्रवण आदि की तीन-तीन भूमियों की प्रत्युपेक्षा करे।। ३१५०. जदि तु उवस्सयपुरतो, नीणिज्जइ तं मएल्लयं ताधे।
३१५७. अहियासियाय अंतो, आसन्ने चेव मज्झ दूरे य। हत्थसयं तो जाव उ, ताव उ न करेंति सज्झायं ।।
तिण्णेव अणहियासी, अंतो छच्छच्च बाहिरओ।। यदि मृत कलेवर उपाश्रय के आगे से ले जाया जाता हो तो
३१५८. एमेव य पासवणे, बारस चउवीसतिं तु पेहित्ता। सौ हाथ के भीतर उसकी स्थिति में स्वाध्याय नहीं करते।
कालस्स य तिन्नि भवे, अह सूरो अत्थमुवयाति॥ ३१५१. को वी तत्थ भणेज्जा, पुप्फादी जा उ तत्थ परिसाडी।
उपाश्रय की सीमा में तीन भूमियां-निकट, दूर और जा दीसंती ताव उ, न कीरए तत्थ सज्झाओ।। कोई यह कहता है जब कलेवर ले जाया जाता है तब फूल
मध्य-अध्यासनीय हैं, प्रत्युपेक्षणीय हैं तथा तीन भूमियां तथा जीर्णवस्त्र परिशाटित-बिखेरे जाते हैं। वे सौ हाथ के भीतर
(निकट, दूर और मध्य) अनध्यासनीय हैं, अप्रत्युपेक्षणीय हैं। यदि दिखाई पड़ते हों तो स्वाध्याय नहीं किया जाता।
इस प्रकार छह भूमियां भीतर और छह भूमियां बाहर-कुल बारह
भूमियां हुई। ये शौचभूमियां हैं। इसी प्रकार बारह भूमियां प्रस्रवण ३१५२. भण्णति मययं तु तहिं, निज्जंतं मोत्तु होतऽसज्झायं।
की। सभी चौबीस भूमियों की प्रत्युपेक्षा करे। काल की तीन जम्हा चउप्पगारं, सारीरमओ न वज्जेंति॥ आचार्य कहते हैं-ले जाए जाते हुए मृतक को छोड़कर पुष्प .
भूमियां-आसन्न, दूर और मध्य की प्रत्युपेक्षा करे। (ये जघन्यतः आदि अस्वाध्यायिक नहीं होते। शरीर अस्वाध्यायिक रुधिर
एक हाथ के अंतरित हों।) इसके बाद सूर्य अस्त हो जाता है। आदि के आधार पर चार प्रकार का है। इनके अतिरिक्त और
३१५९. जदि पुण निव्वाघातं, आवस्सं तो करेंति सव्वे वि। किसी द्रव्य का अस्वाध्यायिक नहीं होता, उनका वर्जन नहीं
सहादिकहणवाघातयाय पच्छा गुरू ठंति॥ किया जाता।
यदि सूर्यास्त के समय निर्व्याघात हो तो सभी आवश्यक ३१५३. एसो उ असज्झाओ,
करें, प्रतिक्रमण करें। श्राद्ध आदि को धर्मकथा करने का व्याघात तव्वज्जिय झाओ तत्थिमा जतणा। होने पर आचार्य स्वयं धर्मकथा करते हैं, पश्चात् निषद्याधर सज्झाइए वि कालं,
सहित आवश्यक में बैठते हैं। कुणति अपेहित्तु चउलहुगा ।। ३१६०. सेसा उ जधासत्ती, आपुच्छित्ताण ठंति सट्ठाणे। यह सारा अस्वाध्याय के विषय में कहा गया है।
सुत्तत्थझरणहेउं, आयरियठितम्मि देवसियं॥ तद्व्यतिरिक्त स्वाध्याय होता है। उसमें यह यतना है। गुरु जब धर्मकथा करते हैं तब शेष साधु गुरु को पूछकर स्वाध्यायिक में भी काल में स्वाध्याय करे। जो काल की सूत्रार्थ के स्मरण के लिए अपने-अपने स्थान पर यथाशक्ति प्रत्युपेक्षा किए बिना स्वाध्याय करता है, उसे चार लघुमास का कायोत्सर्ग में स्थित हो जाते हैं। आचार्य के कायोत्सर्ग में स्थित प्रायश्चित्त आता है।
हो जाने पर मुनि दैवसिक अतिचारों का चिंतन करते हैं।
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