Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 322
________________ सातवां उद्देशक ३०८२. माता भगिणी धूता, मेधावी उज्जुया य आणत्ती । एतासिं असतीए, सेसा वाएज्जिमा मोत्तुं ॥ माता, भगिनी, पुत्री जो मेधावी, प्रज्ञावती तथा अकुटिल हों तथा आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाली हों, उनको वाचना दे। उन स्वजनों के अभाव में अस्वजनों को भी वाचना दे किंतु निम्नोक्त का वर्जन करे। ३०८३. तरुणिं पुराण भोइय, मेहुणियं पुव्वहसिय वभिचरियं । एतासु होंति दोसा, तम्हा उ न वायए ते ऊ ॥ तरुणी स्त्री, पौराणिकी- जिसने पुनः दीक्षा ग्रहण की है, भोज्या - वेश्या, भार्या, जिसके साथ हास्यालाप किया हो ऐसी स्त्री तथा जो व्यभिचारिणी हो-इनको वाचना देने से पूर्वाभ्यास से आत्म-परसमुत्थ दोनों प्रकार के दोष होते हैं, इसलिए इनको वाचना नहीं देनी चाहिए। ३०८४. वज्जकुड्डुसमं चित्तं, जदि होज्जाहि दोण्ह वी । तहा वि संकितो होति एयाओ वाययंत उ । यद्यपि दोनों (वाच्य वाचक) का चित्त वज्रकुड्य के समान होता है, फिर भी वाचना देने वाले के प्रति शंका होती है, इसलिए इनका वर्जन किया है। ३०८५. पुव्वं तु किढी असतीय, मज्झिमा दोसरहित वाती । गणधर अण्णतरो वावि, परिणतो तस्स असतीए ॥ पहले वृद्धा को वाचना देनी चाहिए। उसके अभाव में दोषरहित गणधर मध्यम वय वाली साध्वियों को वाचना दे। यदि गणधर अन्य प्रयोजन में व्यापृत हों तो उनके अभाव में कोई परिणत मुनि वाचना दे । ३०८६. तरुणेसु सयं वाए, दोसन्नतरेण वावि जुत्तेसु । विधिणा तु इमेणं तू, दव्वादीएण उ जतंतो ॥ परिणत मुनि न हो तथा तरुण आदि मुनि किसी न किसी दोष से युक्त हों तो गणधर स्वयं द्रव्य आदि से यतना करता हुआ इस विधि से वाचना दे। ३०८७. दव्वे खेत्ते काले, मंडलि दिट्ठी तधा पसंगो य । एतेसु जतणं वुच्छं, आणुपुव्विं समासतो ॥ यतना के छह स्थान हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, मंडली, दृष्टि तथा प्रसंग | मैं इन स्थानों की यतना को क्रमशः संक्षेप में कहूंगा। ३०८८. जं खलु पुलागदव्वं, तव्विवरीतं दुवे विभुंजंति । पुव्वुत्ता खलु दोसा, तत्थ निरोधे निसग्गे य ॥ द्रव्ययतना-वाच्या और वाचयिता - दोनों पुलाकद्रव्य के विपरीत द्रव्य का भोजन करें। अन्यथा मूत्र आदि का निरोध तथा निसर्ग आदि पूर्वोक्त दोष उत्पन्न होते हैं। सभारामे । उभयवसधिं च मोत्तुं, वाएज्ज असंकणिज्जेसु ॥ ३०८९. सुन्नघरे पच्छन्ने, उज्जाणे देउले Jain Education International २८३ क्षेत्रयतना - शून्यगृह, प्रच्छन्न- एकांत प्रदेश, उद्यान, देवकुल, सभा, आराम, संयतवसति तथा संयतिवसति -- इन स्थानों को छोड़कर अशंकनीय स्थानों में वाचना दे। ३०९०. उभयनिए वतिणीय व, सण्णि अधाभद्द तह य धुवकम्मी । आसणेऽसति अज्जाणुवस्सए अप्पणो वावि ।। उभय अर्थात् सयंति के तथा संयत के निज स्थान पर अथवा व्रतिनी के निज स्थान पर, अथवा श्रावक अथवा भद्रक अथवा ध्रुवकर्मी - लोहकार आदि प्रत्यासन्न हों तो वाचना दी जा सकती है। अन्य स्थान न होने पर आर्याओं के उपाश्रय में अथवा स्वयं के उपाश्रय में ( शय्यातर की निश्रा में) वाचना दी जा सकती है। ३०९१. जइ अत्थि वायणं दिंतो, अदाउं ताधि गच्छति । अध नत्थि ताहे दाऊणं, सुत्तइत्ताण पोरिसी ॥ यदि साधुओं में वाचना देने वाला हो तो आचार्य साधुओं में वाचना दिए बिना साध्वियों को वचना देने के लिए जाते हैं। यदि साधुओं में अर्थपौरुषी देने वाला तो है पंरतु सूत्रपौरुषी दाता नहीं है तो आचार्य सूत्रपौरुषी देकर फिर साध्वियों को वाचना देने जाएं। ३०९२. अह अत्थइत्ता होज्जाहि, तो जाति पढमाए तू । असती दोण्ह वी दाणे, इमा उ जतणा तहिं || साधुओं में अर्थदाता कोई नहीं है । साधु अर्थार्थी हैं। ऐसी स्थिति में आचार्य प्रथम पौरुषी में साध्वियों में साध्वियों को वाचना देने जाते हैं फिर दूसरी प्रहर में उपाश्रय में आकर साधुओं को अर्थ की वाचना देते हैं। यदि साधुओं में सूत्रदाता न हो तो साधु-साध्वियों - दोनों को आचार्य अपने उपाश्रय में वाचना दें। दोनों को वाचना देने की यह यतना है। ३०९३. कडणंतरितो वाए, दीसंति जणेण दो वि जह वग्गा । बंधंति मंडलिं ते उ, एक्कतो यावि एक्कतो ॥ मंडलीयतना- एक ओर संयत मंडली बांधकर बैठ जाते हैं और एक ओर संयतियां मंडली बांधकर बैठ जाती हैं। दोनों के मध्य कट का पड़दा बांध दिया जाता है। दोनों वर्ग लोगों को दृष्टिगोचर हो सकें इस प्रकार बैठ कर कटांतरित रहकर वाचना दे। ३०९४. लोगे वि पच्चओ खलु, वंदणमादीसु होंति वीसत्था । दुग्गूढादी दोसा, विगारदोसा य नो एवं ॥ इस प्रकार करने से लोगों में विश्वास होता है तथा वंदना करने आदि के लिए आने वाले लोग दोनों वर्गों को इस प्रकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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