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सातवां उद्देशक
२७३ २९४९. अब्भुवगयाए लोओ, कप्पट्ठग लिंगकरण दावणया। २९५५. दुविधं पि य वितिगिटुं, निग्गंथीणुद्दिसति चउगुरुगा। भिक्खग्गहणं कधेति, वदति वहंते दिसा तिण्णि।।
आणादिणो य दोसा, दिर्सेतो होति कोसलए। यदि वह इन सब तथ्यों को स्वीकार करती है तो उसका विकृष्ट दो प्रकार का होता है-क्षेत्रविकृष्ट और भावविकृष्ट । लुंचन करे। एक बालक को संयती के वस्त्र पहनाकर उसे वस्त्र श्रमणियों को यदि ये दोनों प्रकार की दिक् उद्दिष्ट की जाती है तो पहनने की विधि सिखाए। फिर भिक्षाटन की सामाचारी का कथन चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष उत्पन्न करे और कहे कि जब तक मैं आचार्य के पास न जाऊं तब तक होते हैं। इसमें कोशलक का दृष्टांत है। तुम्हारी तीनों दिशाएं मैं ही हूं-मैं ही तुम्हारा आचार्य हूं, मैं ही २९५६. उवसामिता जतंतेण, कोसलेणं गते य सा तम्मि। उपाध्याय हूं और मैं ही प्रवर्तिनी हूं।
तं चेव ववदिसंती, निक्खंता अन्नगच्छम्मि।। २९५०. माऊय एक्कियाए, संबंधी इत्थि-पुरिससत्थे य। २९५७. वारिज्जंती वि गया, पडिवण्णा सा य तेण पावेणं।
एमेव संजतीण वि, लिंगकरण मोत्तु बितियपदं।। जिणवयणबाहिरेणं, कोसलएणं अकुलएणं॥ किसी मुनि ने अपनी माता को प्रव्रजित किया। उसको कोशलदेशवासी अन्य देश में गया। वह सदनुष्ठानों में रत नालबद्ध स्त्री संबंधियों के साथ, उसके अभाव में नालबद्ध पुरुषों रहने लगा। उसने वहां एक श्राविका को उपशांत किया, विरक्त के साथ अपने गुरु के पास ले जाए। इसी प्रकार किसी साध्वी ने किया। उसके चले जाने पर वह श्राविका अन्य गच्छ में दीक्षित किसी पुरुष को प्रताजित किया तो उनके लिए भी यही विधि है। हो गई परंतु वह यही कहती-मेरे आचार्य कोशलदेशवासी ही हैं। अपवाद पद में उसका लिंगकरण करना विहित है।
दीक्षा के पश्चात् उसको निषिद्ध करने पर भी वह कोशलक के २९५१. उट्ठेत निवेसंते, सति करणादी य लज्जनासो य। पास गई। जिनवचन से बाह्य, अकुलज उस पापी कोशलक ने
तम्हा उ सकडिपढें, गाहेति तयं दुविधसिक्खं॥ उसे स्वीकार कर लिया। वह मुनि उठता है, बैठता है। लज्जानाश के लिए एक बार २९५८. कोसलए किं कारण, गहणं बहुदोसलो उ कोसलओ। उसे कटिपट्टक धारण करना होता है। उस संयत को दोनों प्रकार
तम्हा दोसुक्कडया, गहणं इह कोसले अवि य॥ की शिक्षाएं वे संयतियां देती हैं।
प्रश्न होता है कि कोशलक का ग्रहण क्यों किया गया? २९५२. आयरिय उवज्झाओ, ततिया य पवत्तिणी उसमणीणं। आचार्य कहते हैं-कोशलक (देश के स्वभाव के कारण)
अण्णेसिं अट्ठाए, त्ति होति एतेसि तिण्हं पि॥ बहुदोषल होता है, इसलिए यहां कोशलक का ग्रहण उसकी
श्रमणियों के लिए आचार्य, उपाध्याय और तीसरी दोषोत्कटता के कारण किया गया है। प्रवर्तिनी होती है। श्रमणों के दो होते हैं-आचार्य और उपाध्याय। २९५९. अंधं अकूरमययं, अवि या मरहट्ठयं अवोकिल्लं। जो दोनों सूत्रों में 'अन्येषामर्थाय' कहा गया है, उसका अर्थ
कोसलयं च अपावं, सतेस एक्कं न पेच्छामो॥ है-संयतियों के लिए यथायोग्य इन तीनों के लिए और श्रमणों के आंध्रदेशवासी अक्रूर, महाराष्ट्रदेशवासी अवाचाल और लिए दोनों के लिए।
कोशलक अपापी-ऐसा सैंकड़ों में भी एक नहीं देखा जाता। २९५३. पव्वावियस्स नियमा, देति दिसिं दुविधमेव तिविधं वा। २९६०. कोसलए जे दोसा, उद्दिस्संतम्मि किन्न सेसाणं। सा पुण कस्स विगिट्ठा, उद्दिस्सति सन्निगिट्ठा वा।।
ते तेसि होज्ज व न वा, इमेहि पुण नोद्दिसे ते वि।। प्रवाजित को नियमतः दो दिशाएं अथवा तीन दिशाएं देते दिशा उद्दिष्ट करते हुए कोशलक के जो दोष होते हैं, तो हैं। वह दिनिर्देश किसको विप्रकृष्ट अथवा किसको सन्निकृष्ट क्या दिक् उद्दिष्ट करने वाले दूसरों के नहीं होते? आचार्य कहते उद्दिष्ट किया जाए-यह सूत्रसंबंध है।
हैं-दूसरों में वे दोष हों या न हों, कोशलक के ये निश्चित होते हैं। २९५४. अहवा वि सरिसपक्खस्स
तथा इन वक्ष्यमाण कारणों से उन शेषदेशोत्पन्न क्षेत्रविकृष्टों को अभावा दिक्खणा विपक्खे वि।। भी उद्दिष्ट न करे। तत्थ वि कस्स विगिट्ठा,
२९६१. अन्नं उद्दिसिऊणं, निक्खंता वा सरागधम्मम्मि। उद्दिस्सति कस्स वा नेति॥
अण्णोण्णम्मि ममत्तं, न ह वग्गाणं पि संभवति॥ अथवा सदृशपक्ष के अभाव में विपक्ष को भी दीक्षा दी जाती सरागधर्म में अन्य आचार्य को उद्दिष्ट कर निष्क्रमण किया है। उस स्थिति में किसी को विप्रकृष्ट दिक् उद्दिष्ट करते हैं और परंतु परस्पर जो ममत्व है वह व्यग्रचित्तवालों के कभी नहीं होता। किसी को नहीं-यह सूत्रद्वय में कहा गया है।
(किंतु वह एकचित्त वालों के ही होता है।) For Private & Personal Use Only
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