Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 315
________________ २७६ सानुवाद व्यवहारभाष्य है। २९८७. आलीवेज्ज व वसधिं, गुरुणो अन्नस्स घायमरणं वा। अन्यापदेश से-अन्योक्ति से उसका परित्याग कर देना चाहिए। कंडच्छारिउ सहितो, सयं व ओरस्स बलवं तु।। २९९४. महाजणो इमो अम्हं खेत्तं पि न पहुप्पति। वह 'कंडच्छारिय' हत्यारों के साथ मिलकर अथवा अपने वसधी सन्निरुद्धा वा, वत्थपत्ता वि नत्थि नो॥ स्वयं के शारीरिक बल के आधार पर आकर गुरु की वसति को उसे कहे-हमारा यह गण महाजन अर्थात् संख्याबहुल है। आग लगा दे अथवा गुरु अथवा अन्य का घात करे या मार डाले। यह क्षेत्र भी हमारे लिए पर्याप्त नहीं है। अथवा यह वसति संकरी २९८८. जदि भासति गणमज्झे अवप्पयोगा य तत्थ गंतूण। है। अथवा हमारे पास अभी वस्त्र-पात्र नहीं है, अतः तुम अन्यत्र अवितोसविए एसागतो त्ति ते चेव ते दोसा॥ कहीं चले जाओ। यदि अन्य प्रयोजन से वहां जाकर वह गण के बीच यह २९९५. सगणिच्चपरगणिच्चेण, समणुण्णेतरेण वा। कहता है कि यह मुनि अधिकरण को उपशांत किए बिना यहां रहस्सा वि व उप्पन्नं, जं जहिं तं तहिं खवे॥ आया है तो ऐसा कथन करने वाले के भी वे ही प्रागुक्त दोष होते यदि आचार्य के समझाने पर वह मुनि उपशांत होता है तो स्वगण के मुनियों के साथ, परगण के मुनियों के साथ, समनोज्ञ २९८९. जम्हा एते दोसा, अविधीए पेसणे य कहणे य। अथवा अमनोज्ञ मुनियों के साथ, एकांत में अथवा जनमध्य में, तम्हा इमेण विहिणा, पेसणकहणं तु कायव्वं ॥ जहां-जहां अधिकरण उत्पन्न हुआ हो वहां-वहां वह उसका अविधि से संघाटक को प्रेषित करने या उस मुनि के विषय उपशमन करे। में कथन करने से ये दोष होते हैं, इसलिए इस विधि से प्रेषण २९९६. एक्कको व दो व निग्गत,उप्पण्णं जत्थ तत्थ वोसमणं। और कथन करना चाहिए। गामे गच्छे दुवे गच्छा, कुल-गण-संघे य बितियपदं।। २९९०. गणिणो अत्थि निन्मेयं, रहिते किच्च पेसिते। एक, दो अथवा तीन, चार आदि मुनि अधिकरण कर गच्छ गमेति तं रहे चेव, नेच्छे सहामहं खु ते॥ से निर्गत हो गए तो जिस-जिस ग्राम में अधिकरण उत्पन्न हुआ अन्य प्रयोजन से भेजा हुआ मुनि वहां जाकर एकांत में था, वहां उन्हें ले जाया जाता है और अधिकरण का उपशमनगणी को उस मुनि के अधिकरण रहस्य को बताता है। तब उस क्षमत-क्षामना कराया जाता है। वह अधिकरण एक गच्छ अथवा गच्छ के आचार्य एकांत में गणी को उस मुनि को बुलाकर पूछते दो गच्छों में, कुल, गण, संघ में हो सकता है। यहां द्वितीयपदहैं। वह मुनि उसे स्वीकार न कर कहता है-जो ऐसी बात करता है अपवादपद से उसका भी उपशमन किया जाता है। मैं निश्चित उसके आमने-सामने होना चाहता हूं। २९९७. तं जत्तिएहि दिटुं, तत्तियमेत्ताण मेलणं काउं। २९९१. गुरुसमक्खं गमितो, तहावि जदि नेच्छति। गिहियाण व साधूण व, पुरतो च्चिय दो वि खामंति॥ ताहे णं गणमज्झम्मि, भासते नातिनिट्टरं॥ उत्पन्न अधिकरण को जितने गृहस्थों और साधुओं ने देखा गुरु के समक्ष वह प्रेषक उस मुनि को कौशल से सारी बात है, उन सबको एकत्रित कर उनके समक्ष दोनों पक्ष वाले क्षमतकहता है, फिर भी वह उसे स्वीकार नहीं करता, तब गुरु गण के क्षामना करें। बीच उस मुनि को अतिनिष्ठर वचनों से नहीं, सामान्य वाणी में २९९८. नवणीयतुल्लहियया, साहू एवं गिहिणो तु नाहेति। सारी बात कहते हैं। न य दंडभया साहू, काहिंती तत्थ वोसमणं ।। २९९२. गणस्स गणिणो चेव, तुमम्मि निग्गते तदा। गृहस्थ यह जान पाएंगे कि साधु नवनीत के समान कोमल अद्धिती महती आसी, सो विपक्खो य तज्जितो॥ हृदयवाले होते हैं। वे दंडभय से अधिकरण को उपशांत नहीं करते आचार्य कहते हैं-मुने! अधिकरण करके जब तुम गण से किंतु कर्मक्षय करने के लिए करते हैं। निर्गत हुए तब गण और गणी को महान् अधृति-दुःख हुआ। २९९९. बितियपदे वितिगिटे, वितोसवेज्जा उवट्ठिते बहुसो। तुम्हारे विपक्ष मुनि अर्थात् जिसके साथ तुम्हारा अधिकरण हुआ, बितिओ जदि न उवसमे, गतो य सो अन्नदेसं तु॥ उसकी भी गण और गणी ने बहुत तर्जना की। अपवादपद में विप्रकृष्ट कलहों का भी उपशमन करे। २९९३. गणेण गणिणा चेव, सारिज्जंतो स झंपिए। जिसके साथ अनेक बार अधिकरण किया, उसके उपस्थित होने ताहे अन्नावदेसेण, विवेगो से विहिज्जइ। पर उससे क्षमायाचना करे। यदि क्षमायाचना करने पर भी वह इतना कहने के पश्चात् वहां के गण और गणी के उपशांत नहीं होता और अनुपशांत दशा में अन्य देश में चला समझाने-बुझाने पर भी वह मुनि उपशांत नहीं होता है तब जाता है और........ १. ग्राम, ग्रामपति, देश, देशपति, लुटेरा, लुटेरों का सहायक-इनके साथ मिलकर पाप करने वाला 'कंडच्छारिय' कहलाता है। (वृत्ति)। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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