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पर प्रायश्चित्त है मूल । कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त बताया गया है । (जैसे, प्रथम याम में मूल, दूसरे में छेद, तीसरे में छह गुरुमास, चौथे में चार गुरुमास ।) यह सूत्र पंचम या अर्थात् दिवस के प्रथम याम से संबंधित है।
२८०७. दुविधं वा पडिमेतर सन्निहितेतर अचित्तसच्चित्ते ।
बाहिं व देउलादिसु, सोही तेसिं तु पुव्वुत्ता ॥ अर्चा के दो प्रकार हैं-अचित्त और सचित्त । अचित्त के दो प्रकार हैं- प्रतिमा तथा इतर अर्थात् निर्जीव स्त्रीशरीर । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं- सन्निहित, असन्निहित। ग्राम के बाहर देवकुल आदि में अचित्त प्रतिमा का सेवन अथवा करकर्म (हस्तकर्म) करने वाले की शोधि - प्रायश्चित्त पूर्वोक्त ही है । " २८०८. संगारदिण्ण उ एस, साईयं वा तहिं अपेच्छंती । पेलेज्ज व तं कुलडा पुत्तट्ठा देज्ज रूवं वा ॥ साधु को प्रस्रवण के लिए बाहर जाते हुए देखकर कोई कुलटा सोचती है - जिसने मुझे संकेत दिया था वह आ गया है। अथवा संकेत देने वाले पुरुष को आया हुआ न देखकर वह कुलटा उस साधु को अधर्माचरण के लिए प्रेरित करती है। अथवा साधु के रमणीय रूप को देखकर, पुत्र प्राप्ति की कामना से साधु को ग्रहण कर लेती है, पकड़ लेती है।
२८०९. जइ सेव पढमजामे, मूलं सेसेसु गुरुग सव्वत्थ । अधवा दिव्वादीयं, सच्चितं होति नायव्वं ॥ यदि प्रेरणा के वशीभूत होकर रात्री के प्रथमयाम में उस स्त्री का सेवन करता है तो प्रायश्चित्त है मूल। दूसरे याम में छेद, तीसरे में छह गुरुमास, चौथे में चार गुरुमास और पांचवे में भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है । अथवा सचित्त के तीन प्रकार ये हैं - दिव्य, तैर्यग्, मानुष ।
२८१०. जं सासु तिधा तितयं, नादिव्वं पासवं च संगीतं । जह वुत्तं उवहाणं, तं न पुण्णं इहावण्णं ॥ जो सासु-सचित्त है वह तीन प्रकार का है- दिव्य, मानुष और पाशव । इन तीनों के तीन-तीन भेद व्याख्यात हैं- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जो उपधान-प्रायश्चित्त का कहा गया है, वह यहां पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं है-ऐसा नहीं कहना चाहिए, किन्तु वह पूर्णतः प्राप्त है।
२८११. बितियपदे तेगिच्छं, निव्वीतियमादियं अतिक्कंते ।
ताहे इमेण विधिणा, जतणाए तत्थ सेवेज्जा ॥ निर्विकृतिक आदि से की जाने वाली चिकित्सा अतिक्रांत हो जाने पर तथा वेदोदय उपशांत न हो तो अपवादपद में इस विधि से यतनापूर्वक प्रतिसेवना करे ।
१. पंचम याम में करकर्म करने वाले को गुरुमास तथा अचित्त प्रतिमा के सेवन में चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।
२. उल्मुक-अधजली लकड़ी अकेली नहीं जलती। अनेक साथ होने पर
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सानुवाद व्यवहारभाष्य २८१२. खलखिलमदिट्ठविसयं, विसत्त अव्वंगवंगणं काउं । ताधे इमंसि लेसे, गीतत्थ जतो निलिज्जेज्जा ॥ खलखिल अर्थात् निर्जीव का सेवन इस प्रकार करे- अदृष्टविषय अर्थात् जहां कोई न देखे अर्थात् रात्री में, निर्जन तथाक्ष किया हुआ न हो तो क्षत करके उस निर्जीव प्रतिमा के मूत्रविवर में शुक्र निसर्ग करे। गीतार्थ अरक्तद्विष्ट होकर शुक्रपुद्गलों का निष्कासन करे ।
२८१३. अभिनिव्वगडादीसुं, समणीण पडिस्सगस्स दोसेण ।
दोसबहुला गणातो, अवक्कमे कावि संबंधो ॥ परिक्षेपरहित वसति वाले उपाश्रय के दोष से कोई दोषबहुला श्रमणी गण से अपक्रमण कर दे। उसकी विधि इस सूत्र में बताई गई है - यह सूत्रसंबंध है।
२८१४. इत्थी पण्हाति जहिं, व सेवए तेण सबलियायारो । उज्जतविहारमण्णं, उवेज्ज बितिओ भवे जोगो ॥
जहां स्त्री-पुरूष मैथुनकर्म प्रारंभ करते हैं वहां उसे देखकर श्रमणी शबलाचार वाली हो जाती है और अन्य उद्यतविहार का आश्रय ले लेती है। उसकी विधि इस सूत्र में बतायी गई है, इसका यह दूसरा सूत्रसंबंध है।
२८१५. जा होति परिभवंतीह, निग्गया सीयए कहं स त्ति । संवासमादिएहिं स छलिज्जति उज्जमंता वी ॥
शिष्य प्रश्न करता है कि जो महिला प्रमादगण का परिभव करती हुई धर्मश्रद्धा से गृहवास से निर्गत होती है, वह क्यों विषादग्रस्त होकर क्षताचारवाली हो जाती है ? आचार्य कहते हैं-वह अपनी शक्ति के अनुसार उद्यम करती हुई भी अकेली के कारण गृहस्थों के साथ संवास करती हुई छलना को प्राप्त हो जाती है।
२८१६. अद्धाणनिग्गयादी, कप्पट्टी संभरंति जा बितिया ।
आगमणदेसभंगे, चउत्थि पुण मग्गते सिक्खं ॥ . उसके एकाकिनी होने के चार कारण हैं - (१) मार्ग में अकेली रह जाना (२) कप्पट्ठि पुत्री आदि की स्मृति कर अकेली हो जाना (३) शत्रुसेना के आगमन पर देशभंग हो जाने पर अकेली हो जाना (४) शिक्षा की कामना से अकेली हो जाना। २८१७. गोउम्मुगमादीया, नाया पुव्वं मुदाहडा ओमे ।
ओमे असिवे य दुट्ठे, सत्थे वा तेण अभिद्दुते ॥ अवमौदर्य-दुर्भिक्ष में श्रमणियां एक साथ रह नहीं सकतीं। ऐसी स्थिति में 'गोज्ञात' अर्थात् गायों का उदाहरण जो पूर्वोक्त है। उसका सहारा लेकर एकाकी हो जाती है अथवा अशिव-महामारी की स्थिति में उल्मुकज्ञात का सहारा लेकर एकाकी हो जाती है। जलती है-उल्मुकानि बहूनि मिलितानि ज्वलन्ति, एकं द्वे वा न
ज्वलतः ।
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