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छठा उद्देशक
के आने के बाद) है-साधुओं के निमित्त किया जा रहा है। २४९७. पुव्वाउत्तारुहिते, केसिंचि समीहितं तु जं जत्थ । एते न होंति दोण्णि वि, पुव्वपवत्तं तु जं जत्थ ॥ कुछ आचार्य मानते हैं कि पूर्वायुक्त वह है जो चूल्हे पर पकाने के लिए आरोपित है और कुछ यह मानते हैं कि जो पकाने के लिए इच्छित है, वह पूर्वायुक्त है। ये दोनों प्रमाण नहीं हो सकते। जो उपस्कार के लिए पूर्वप्रवृत्त है वह पूर्वायुक्त है। २४९८. पुव्वारुहितेय समीहिते य किं छुब्भते न खलु अण्णं ।
तम्हा खलु जं उचितं तं तु पमाणं न इतरं तु ॥ चूल्हे पर पूर्व आरोपित अथवा पाक के लिए समीहित सामग्री में क्या दूसरी सामग्री नहीं डाली जा सकती ? इसलिए जो उचित परिभाषा है, वह प्रमाण है, दूसरी नहीं । २४९९. बालगपुच्छादीहिं, नाउं आयरमणायरेहिं च । जं जोग्गं तं गेण्हति, दव्वपमाणं च जाणेज्जा ॥ बालकों की पृच्छा आदि से तथा आदर- अनादर से योग्यअयोग्य को जानकर जो योग्य हो- श्रमण के लिए प्रायोग्य हो उसको ग्रहण करे। वहां के द्रव्य प्रमाण को भी अच्छी तरह से जान ले ।
२५००. दव्वप्यमाणगणणा, खारित फोडिय तधेव अद्धा य । संविग्ग एगठाणा, अणेगसाधूसु पन्नरस ॥ द्रव्यप्रमाण अर्थात् द्रव्यगणना, क्षारित, स्फोटित तथा अद्धाकाल, संविग्न एकस्थान - एक संघाटात्मक, अनेक साधु, पंद्रह दोष । ( इस गाथा की व्याख्या अगली गाथाओं में ।) २५०१. सत्तविधमोदणो खलु, साली-वीही य कोद्दव-जवे य ।
गोधुम-राग- आरण्ण, कूरखज्जा य णेगविधा ॥ वह यह जाने कि यहां सात प्रकार का ओदन (कूर) होता है-शालि ब्रीहि, कोद्दव, यव, गोधूम, रालक तथा आरण्यब्रीहिर । खाद्य के अनेक प्रकार हैं।
२५०२. सागविहाणा य तधा, खारियमादीणि वंजणाई च । खंडादिपाणगाणि य, नाउं तेसिं तु परिमाणं ॥ शाकविधान, क्षारित आदि व्यंजन, खंड आदि पानकइनके परिमाण को जानकर (मुनि भिक्षा ले।) २५०३. परिमितभत्तगदाणे, दसुवक्खडियम्मि एगभत्तट्ठो ।
अपरिमिते आरेण वि, गेण्हति एवं तु जं जोग्गं ॥ कोई परिमित भक्तक दान देना है, इस प्रकार के निश्चय में दस व्यक्तियों के लिए उपस्कृत भक्त में से एक भक्तार्थ - एक के योग्य भक्तार्थ ग्राह्य होता है। अपरिमित भक्तक दान में (नौ, आठ, सात) के लिए उपस्कृत भक्त में से जो योग्य हो वह पर्याप्त ग्रहण करे ।
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२५०४. अद्धा य जाणियव्वा, इहरा ओसक्कणादयो दोसा । संविग्गे संघाडो, एगो इतरेसु न विसंति ॥ अद्धा अर्थात् भिक्षावेला भी ज्ञातव्य होती है अन्यथा अवष्वष्कण आदि दोष होते हैं। संविग्न मुनियों का एक संघाटक जहां प्रवेश करता है वहां जाए और जहां इतर अर्थात् अनेक संघाटक जाते हों, वहां न जाए।
२५०५ तहियं गिलाणगस्सा, अधागडाई हवंति सव्वाइं । अभंगसिरावेधो, अपाणछेयावणेज्जाई ॥ (कोई वैद्य साधु के स्वजनग्लान की चिकित्सा कर रहा है) वहां यदि ग्लान मुनि को ज्ञातविधि में ले जाया जाता है वहां ग्लान का अभ्यंग, शिरोवेध, अपानकर्म, छेदापनीय अंगों को छेदना आदि सभी कर्म यथाकृत होते हैं अर्थात् पुरः कर्म, पश्चात्कर्म रहित होते हैं।
२५०६. जइ नीयाण गिलाणो,
नीओ वेज्जो व कुणति अण्णस्स । तत्थ हु न पच्छकम्मं,
जायति अब्भंगमादीसु ॥
२५०७. पुव्वं च मंगलट्ठा, तुप्पेउं जइ करेति गिहियाणं । सिरवेध-वत्थिकम्मादिएसु न उ पच्छकम्मेयं ॥
यदि वैद्य स्वजनों के संबंधी ग्लान की अथवा अन्य ग्लान की चिकित्सा करता है वहां अभ्यंग आदि में पश्चात्कर्म नहीं होता क्योंकि पहले यदि मंगल के लिए साधु का अभ्यंग कर फिर गृहस्थों का करता है तो यह पश्चात्कर्म नहीं है । इसी प्रकार शिरोवेध, वस्तिकर्म आदि क्रियाओं में भी जानना चाहिए । २५०८. अत्तट्ठा उवणीया, ओसधमादी वि होंति ते चैव ।
पत्थाहारो य तहिं, अधाकडो होति साधुस्सा ॥ गृहस्थ अपने लिए जो औषधि आदि लाता है, वे सब साधु भी काम आ सकती है। गृहस्थ के लिए आनीत पथ्याहार भी साधु के लिए यथाकृत ही होता है।
२५०९. अगिलाणे उ गिहिम्मी, पुव्वुत्ताए करेंति जतणाए । अण्णत्थ पुण अलंभे, नायविधिं नेंति अतरंत ॥ यदि कोई गृहस्थ ग्लान हो तो ग्लान मुनि की चिकित्सा पूर्वोक्त यतना से की जाती है। ग्लान के लिए अन्यत्र औषध न मिलने पर ज्ञातविधि में ग्लान को ले जाया जाता है। २५१०. अधुणा तु लाभचिंता, तत्थ गयाणं इमा भवति तेसिं।
जदि सव्वेगायरियस्स, होंति तो मग्गणा नत्थि ॥ ज्ञातविधि में गए हुए मुनियों की यह लाभचिंता है। यदि सभी मुनि एक आचार्य के हो तो उनमें लाभचिंता की मार्गणा नहीं होती ।
१. कुटुम्ब कितना बड़ा है ? अन्य भोजन करने वाले कितने हैं? कितना पकाया है ? आदि ।
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