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छठा उद्देशक
२५७ कर्म के उदय को वैराग्य से शांत किया जाता है।
शल्योद्धरण से विशोधि होती है। एकाकी मुनि की, २७६९. असुभोदयनिप्फण्णा, संभवंति बहूविधा। शल्योद्धरण के अभाव में, सशल्य मृत्यु होने पर दोष होता है।
दोसा एगाणियस्सेवं, इमे अन्ने वियाहिया॥ बहुश्रुत मुनि की भी एकाकी स्थिति में मृत्यु होने पर वह दोषयुक्त __ अशुभ कर्मोदय से निष्पन्न अनेक प्रकार के दोष एकाकी ही होती है। अल्पश्रुत की एकाकी स्थिति में मृत्यु होने पर विशेष मुनि के होते हैं। उसके ये अन्य दोष भी होते हैं।
दोष होते हैं। यदि बहुश्रुत और अल्पश्रुत साथ रहते हों तो वे २७७०. मिच्छत्तसोधि सागारियादि गेलण्ण खद्धपडिणीए। परस्पर एक-दूसरे की रक्षा कर लेते हैं।
बहि पेल्लणित्थि वाले, रोगे तध सल्लमरणे य॥ २७७७. अप्पेग जिणसिद्धेसु, आलोएंतो बहुस्सुतो। मिथ्यात्व, शोधि, सागारिक आदि, ग्लानत्व, प्रचुर
अगीतो तमजाणंतो, ससल्लो जाति दुग्गति।। भोजन, प्रत्यनीक, बहिःप्रेरण-निष्काशन, स्त्री, व्याल,रोग तथा 'अप्पेव'-एकाकी बहुश्रुत अर्हत्- और सिद्धों की मन में शल्यमरण-(इस द्वारगाथा की व्याख्या अगले श्लोकों में।) अवधारणा कर शल्यों की आचोलना कर लेता है। अगीतार्थ२७७१. ओगाढं पसहायं तु, पण्णवेंति कुतित्थिया। अबहुश्रुत मुनि उस विधि को नहीं जानता अतः सशल्य मृत्यु को
समावण्णो विसोधिं च, कस्स पासे करिस्सति॥ प्रास कर दुर्गति में जाता है।
उस एकाकी अवगाढ़ रोगग्रस्त मुनि को असहाय देखकर २७७८. सीहो रक्खति तिणिसे, कुतीर्थिक व्यक्ति उससे बातचीत करते हैं। वह मिथ्यात्व को प्राप्त
तिणिसेहि वि रक्खितो तधा सीहो। हो सकता है। प्रायश्चित्त प्राप्त व्यक्ति किसके पास विशोधि करे?
एवण्णमण्णसहिता, २७७२. भया आमोसगादीणं, सेज्जं वयति सारियं ।
बितियं अद्धाणमादीसुं। असहायस्स गेलण्णे, को से किच्चं करिस्सति ।। सिंह तिनिशवृक्ष निर्मित गुफा की रक्षा करता है और कोई गृहस्थ चोर आदि के भय से उस एकाकी मुनि की तिनिश गुफा भी सिंह की रक्षा करती है। इसी प्रकार यदि दो मुनि शून्य वसति में चला जाता है। उस असहाय मुनि के ग्लान हो एक साथ रहते हैं तो वे एक दूसरे की सहायता करते हैं। इसमें जाने पर कौन चिकित्सा करेगा?
अपवाद पद यह है-मार्ग में एकाकी श्रमण अन्यसांभोगिक अथवा २७७३. मंदग्गी भुंजते खद्धं, ऊसढं ति निरंकुसो। पार्श्वस्थ आदि के स्थान में पृथक् अपवरक में अकेला रह सकता
एगो परुट्ठगम्मो य, पेल्ले उब्भामिया व णं॥ है।
वह एकाकी है। वह मंदाग्नि से पीड़ित निरंकुश मुनि उत्कृष्ट २७७९. कारणतो वसमाणो, गीतोऽगीतो व होति निदोसो। द्रव्य को प्रचुर मात्रा में खा लेता है। ग्लानत्व आदि हो जाने पर
पुव्वं च वण्णिता खलु, कारणवासिस्स जतणा तु॥ वह असहाय मुनि प्रत्यनीक-विरोधी के लिए गम्य हो जाता है। कारणवश गीतार्थ अथवा अगीतार्थ एकाकी यतनापूर्वक उद्भ्रामक अर्थात् नगररक्षक उस एकाकी मुनि को चोर आदि रहते हैं तो वह निर्दोष है। पूर्व में कारणवश एकाकी रहने की समझकर नगर से निष्कासित कर देते हैं।
यतना का वर्णन किया गया था। २७७४. वभिचारम्मि परिणते, जिंती दट्ठण समणवसहीओ। २७८०. सुत्तेणेव उ सुत्तं, जोइज्जति कारणं तु आसज्ज।
पंतावणादगारो उड्डाहपदोस एमादी।। संबंधघरुव्वरए, कप्पति वसिउं बहुसुतस्स।
व्यभिचारी अर्थात् जार के साथ परिणत कोई एक स्त्री को सूत्र से सूत्र की संयोजना होती है। यही सूत्र से संबंध है। श्रमण-वसति से निकलते हुए देखकर उसका पति श्रमणों को किसी कारणवश बहुश्रुत गृह के अपवरक में अकेला रह सकता मारना-पीटना आदि कर सकता है। इससे प्रवचन का उड्डाह है। होता है, अर्हत् दर्शन के प्रति प्रद्वेष तथा भक्तपान का व्यवच्छेद २७८१. चरणं तु भिक्खुभावो, सामायारीय जा तदट्ठाए। भी हो सकता है।
पडिजागरणं करणं, उभओ कालं महोरत्तं। २७७५. वालेण वावि डक्कस्स, से को कुणति भेसजं। भिक्षुभाव के चारित्र के लिए जो सामाचारी है उसका
दीहरोगे विवद्धिं च, गतो किं सो करिस्सति॥ प्रतिजागरण अर्थात् निर्वहन उभयकाल-दिन और रात में करना वसति में एकाकी मुनि को व्याल-सर्प आदि के डस लेने चाहिए। (ऐसे भिक्षु की आचार्य भी रात-दिन पृच्छा करते हैं।) पर कौन चिकित्सा करता है ? चिकित्सा के अभाव में दीर्घ रोग २७८२. वक्खारे कारणम्मि, निक्कारण पुव्ववण्णिता दोसा। की विवृद्धि हो जाने पर वह क्या कर सकेगा?
किं पुण हुज्जा कारण, तद्दोसादी मुणेयव्वा।। २७७६. सल्लुद्धरणविसोही, मते य दोसा बहुस्सुते वावि। 'वक्खार' अर्थात् एक वलभी में निर्मित पृथक् अपवरक में सविसेसा अप्पसुते, रक्खंति परोप्परं दोवि।। कारणवश अकेला रह सकता है। बिना कारण रहने पर पूर्ववर्णित
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