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छठा उद्देशक
जैसे बंधे हुए, अवरुद्ध किए हुए नट-नायक को कोई मुक्त करने में समर्थ नहीं होता, किंतु वह युवतिकमनीयरूप वाला नटनायक बंधे हुए सभी को मुक्त करने में समर्थ होता है। जैसे प्रयत्नपूर्वक उस नट-नायक की रक्षा की जाती है वैसे ही आचार्य भी रक्षणीय होते हैं। २५९४. एमेवायरियस्स वि, दोसा पडिरूववं च सो होति।
दिज्ज विसं भिक्खुवासो,अभिजोग्ग वसीकरणमादी॥
इसी प्रकार आचार्य की भी रक्षा न करने पर कई दोष होते हैं। वे प्रतिरूपवान् होते हैं। कोई भिक्षु-उपासक विष भी दे सकता है। कोई रूपलुब्धास्त्री आभियोग्य करे अथवा वशीकरण आदि का प्रयोग कर दे। २५९५. नच्चणहीणा व नडा, नायगहीणा व रूविणी वावि।
चक्कं च तुंबहीणं, न भवति एवं गणो गणिणा॥
जैसे नर्तनविहीन नट, नायकविहीन रूपवती स्त्री और तुंबविहीन चक्र नहीं होता, वैसे ही गणी के बिना गण भी नहीं होता है। २५९६. लाभालाभद्धाणे, अकारगे बालवुड्डमादेसे।
सेह खमए न नाहिति, अच्छंतो नाहिती सव्वे॥
आचार्य यदि स्वयं गोचरचर्या में घूमते हैं तो वे यह नहीं जान पाते कि किसको पर्याप्त मिला है और किसको नहीं। जो मार्ग में परिश्रांत होकर अतिथि मुनि आए हैं उनके लिए कौन सा द्रव्य कारक है और कौनसा अकारक तथा वृद्ध, प्राधूर्णक, शैक्ष तथा क्षपक मुनियों के लिए क्या करणीय है, यह भी नहीं जान पाते। यदि वे वसति में ही रहते हैं तो परिश्रम के अभाव में सभी बातें सम्यक्प से जान लेते हैं। २५९७. सोऊण गतं खिंसति, पडिच्छ उव्वात वादि पेल्लेति।
___ अच्छंति सत्थचित्ते, न होति दोसा तवादीया।।
कोई वादी वसति पर आया। उसने सुना कि आचार्य गोचरचर्या के लिए गए हैं। यह सुनकर वह मन ही मन उनकी हीलना करता है। वह उनकी प्रतीक्षा करता है। आचार्य परिश्रांत होकर आते है। वादी उनको प्रश्न का उत्तर देने के लिए प्रेरित करता है। वे उत्तर न देकर वैसे ही बैठ जाते हैं। (क्योंकि वे अभी स्वस्थचित्त नहीं हैं।) स्वस्थचित्त होने पर ताप आदि दोष नहीं होते। २५९८. पागडियं माहप्पं, विण्णाणं चेव सुट्ठ भे गुरुणो।
जदि सो वि जाणमाणो, न वि तुब्भमणाढितो होता॥ वह वादी शिष्यों को कहता है-तुम लोगों ने अपने गुरु का माहात्म्य तथा विज्ञान अच्छेरूप में प्रगट कर दिया ! यदि आचार्य कुछ ज्ञाता होते तो तुम्हारे द्वारा इस प्रकार अनादृत नहीं होते।
२५९९. न वि उत्तराणि पासति,पासणियाणं पि होति परिभूतो।
सेहादि भद्दगा वि य, द8 अमुहं परिणमंति।। गोचरचर्या से परिश्रांत होकर आए हुए आचार्य को उत्तर नहीं सूझते। जो प्राश्निक हैं उनसे भी वे पराभूत होते है। तथा जो शैक्षमुनि हैं और भद्रक आदि हैं, वे भी आचार्य को निरुत्तर देखकर विपरिणत हो जाते हैं। २६००. सुत्तत्थाणं गुणण, विज्जा मंता निमित्तजोगाणं।
वीसत्थे पतिरिक्के, परिजिणति रहस्ससुत्ते य।।
आचार्य यदि भिक्षाटन नहीं करते तो वे विश्वस्त होकर एकांतस्थान में सूत्रार्थ का गुणन, विद्या, मंत्र, निमित्तशास्त्र, योगशास्त्र का परावर्तन कर सकते हैं। वे रहस्यसूत्रों का अत्यंत अभ्यास कर हस्तगत कर लेते हैं। २६०१. रण्णा वि दुवक्खरओ, ठवितो सव्वस्स उत्तमो होति।
गच्छम्मि व आयरिओ, सव्वस्स वि उत्तमो होति ।।
राजा भी जब अपने व्यक्षर-दास को संस्थापित कर देता है तो वह सभी में उत्तम हो जाता है। गच्छ में भी आचार्य सभी में उत्तम होते हैं। २६०२. रायाऽमच्च पुरोहिय, सेट्ठी सेणापति-तलवरा य।
अभिगच्छंतायरिए, तहियं च इमं उदाहरणं ।।
आचार्य के पास राजा, अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी, सेनापति, तलवर आदि आते रहते हैं। वहां यह उदाहरण है। २६०३. सोऊण य उवसंतो, अमच्च रणो तगं निवेदेति।
राया वि बितियदिवसे, ततिएऽमच्ची य देवी य॥
अमात्य आचार्य के पास धर्म सुनकर उपशांत हो गया। उसने आकर राजा को आचार्य के विषय में निवेदन किया। दूसरे दिन राजा अमात्य के साथ आचार्य के पास गया। तीसरे दिन अमात्यी (अमात्य की पत्नी) और देवी (राजा की रानी) आचार्य के पास धर्म सुनने आई। २६०४. सोउं पडिच्छिऊणं, व गता अधवा पडिच्छणे खिंसा।
हिंडंत होति दोसा, कारण पडिवत्तिकुसलेहिं।।
आचार्य गोचरचर्या में गए हैं-यह सुनकर कुछ समय प्रतीक्षा कर चली गईं। अथवा प्रतीक्षा करती हुई जब आचार्य के शरीर को प्रस्वेद से लथपथ देखकर हीलना करती हुई चली गईं। ये सारे गोचरचर्या में घूमने से होने वाले दोष हैं। विशेष कारणवश जाते हैं तो प्रतिपत्तिकुशल मुनि राजा आदि के आने पर वाक्कौशल से उन्हें उत्तर देते हैं। २६०५.कारण भिक्खस्स गते,वि कज्जं अन्नं निवस्स साहित्ता।
निज्जोग नयण पढमा, कमादि धुवणं मणुण्णादी।। २६०६.कयकुरुकुय आसत्थो,पविसति पुव्वरइया निसेज्जाए।
पयता य होंति सीसा, जय चकितो होति राया वि।।
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