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छठा उद्देशक
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केवलज्ञान उत्पन्न होने पर जिनेंद्र चौतीस सर्वज्ञातिशयों से २५७७. आलोगो तिन्निवारे, गोणीण जधा तधेव गच्छे वि। युक्त होते हैं। वे भिक्षाचर्या के लिए नहीं घूमते। इसी प्रकार
नटुं न नाहिति नियट्टदीह सोधी निसेज्जं च। गणी-आचार्य आठ गुणों से सहित-अष्टगणिसंपदा से युक्त वाला जैसे गायों का तीन बार (तीनों वेलाओं में) शास्ता-तीर्थंकर की भांति ऋद्धिमान होने के कारण भिक्षाचर्या के आलोक-देखभाल करता है वैसे ही आचार्य को भी गच्छ की लिए नहीं घूमते।
तीन बार देखभाल करनी चाहिए। (गणालोक न करने पर २५७२. गुरुहिंडणम्मि गुरुगा, वसभे लहुगाऽनिवाययंतस्स।। आचार्य को प्रत्येक बार के लिए मासलघु का प्रायश्चित्त है।)
गीताऽगीते गुरु-लहु, आणादीया बहू दोसा॥ गणालोक न करने पर कौन साधु पलायन कर गया, यह नहीं भिक्षा के लिए घूमते हुए गुरु को यदि वृषभ मुनि निवारित जाना जा सकता। भिक्षाचर्या से कौन साधु लौट आया है और नहीं करते हैं तो उनको चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है और कौन नहीं, कौन दीर्घकाल तक भिक्षाचर्या करता है और कौन यदि निवारित करने पर भी गुरु भिक्षाचर्या से विरत नहीं होते हैं नहीं-यह गणालोक के बिना नहीं जाना जा सकता। आचार्य यदि तो स्वयं गुरु को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। गीतार्थ भिक्षाचर्या में घूमते हैं तो अन्य मुनियों को कौन शोधिभिक्षु यदि गुरु को निवारित नहीं करता तो मासगुरु और आलोचना देगा। गणालोक के बिना कैसे जाना जा सकेगा कि अगीतार्थ के निवारित न करने पर भी यदि गुरु विरत नहीं होते तो कौन गृहनिषद्या करता है। उनको (गुरु को) चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २५७८.मा आवस्सयहाणी,करेज्ज भिक्खालसा व अच्छेज्जा। २५७३. वाते पित्ते गणालोए, कायकिलेसे अचिंतया।
तेण तिसंझालोगं सिस्साण करेति अच्छंतो।। मेढी अकारगे वाले, गणचिंता वादि इड्डियो।। आचार्य गोचरी में घूमते रहे तो किस मुनि ने आवश्यक भिक्षा के लिए घूमने पर वात और पित्त का प्रकोप होता है। योगों की हानि की यह नहीं जाना जा सकता। भिक्षाचर्या में गण का आलोक नहीं किया जाता। कायक्लेश होता है। सूत्रार्थ आलसी होकर अन्य साधु वसति में ही बैठे रहेंगे। इसलिए की चिंता नहीं रहती। आचार्य मेढ़ीभूत। अकारक द्रव्य। व्याल आचार्य अपने स्थान पर स्थित रहकर ही तीनों संध्याओं की पीड़ा। गणचिंता। वादी। ऋद्धि। (इस गाथा की व्याख्या गाथा (वेलाओं) में शिष्यों का आलोक करे, देखभाल करे। २६०१ तक है।)
२५७९. हिंडतो उव्वातो, सुत्तत्थाणं च गच्छपरिहाणी। २५७४. भारेण वेयणाए, हिंडते उच्चनीयसासो वा।
नासेहिति हिंडंतो, सुत्तं अत्थं च रेगेणं ।। . बाहु-कडिवायगहणं, विसमाकारेण सूलं वा। गोचरचर्या में आचार्य घूमते हुए परिश्रांत हो जाते हैं।
आहार से भरे हुए पात्रों के भार से वेदना होती है। इससे गच्छ में सूत्रार्थ की परिहानि होती है तथा शिष्यों के ऊंचे-नीचे घरों में चढ़ने उतरने से श्वास का रोग हो सकता है। गणांतर में संक्रमण करने पर गच्छ की हानि भी होती है। बाहु और कटिभाग वायु से ग्रस्त हो जाता है। विषमाकार में भिक्षाचर्या में घूमते हुए आचार्य को सूत्र और अर्थ के पुनचिंतन स्थित ग्राम में घूमने से शूल का रोग भी हो सकता है।
के लिए आरेक-एकांतस्थान न मिलने के कारण तथा आक्षेप होने २५७५. अच्चुण्हताविए उ, खद्ध-दवादियाण छड्डणादीया। के कारण स्वयं का सूत्रार्थ भी नष्ट हो जाता है।
अप्पियणे असमाधी, गेलण्णे सुत्तभंगादी॥ २५८०. जा आससिउं भुंजति, भुत्तो खेयं व जाव पविणेती। भिक्षाचार्य में अत्युष्णता से परितापित आचार्य प्रचुर पानी
ताव गतो सो दिवसो, नट्ठसती दाहिती किं वा ।। पीते हैं तो अजीर्ण हो जाने पर वमन आदि होने लग जाता है। भिक्षाचर्या से वसति में आकर क्षणमात्र आश्वस्त होकर पर्याप्त पानी न पीने पर असमाधि होती है। ग्लानत्व होने पर भोजन करते हैं, भोजन कर लेने पर भी जब तक भिक्षाचर्या में सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी का भंग होता है।
घूमने का परिश्रम मिट नहीं जाता तब तक वह पूरा दिन व्यर्थ २५७६. बहिया य पित्तमुच्छा, पडणं उण्हेण वावि वसधीए। चला जाता है। सूत्रार्थ के अचिंतन से उसकी स्मृति नष्ट हो जाती
आदियणे छड्डणादी, सो चेव य पोरिसीभंगो। है। ऐसी स्थित में वह क्या दे पायेगा? गर्मी से परितप्त होने पर (पित्त प्रकृति वाले) आचार्य पित्त २५८१. रेगो नत्थि दिवसतो, रत्तिं पि न जग्गते समुव्वातो। की मूर्छा से वसति के बाहर गिर पड़ते हैं अथवा वसति में
नय अगुणेउं दिज्जति,जदि दिज्जति संकितो दुहतो॥ आकर गिर जाते हैं। भोजन के पश्चात् प्रचुर जलपान करने पर सूत्रार्थ का चिंतन करने के लिए दिन में भी एकांत अवसर वमन आदि होने लग जाता है तथा सूत्रार्थ की पौरुषी का भंग नहीं मिलता। पूर्ण परिश्रांत होने के कारण रात्रि में भी नहीं जागा होता है।
जा सकता। तथा सूत्रार्थ का परावर्तन किए बिना उसे नहीं दिया
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