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सानुवाद व्यवहारभाष्य २७२७. गामे उवस्सए वा, अभिनिव्वगडाय दोस ते चेव। २७३४. दुल्लभभिक्खे जतिउं, सग्गामुब्भाम पल्लियासुं च। नवरं पुण नाणत्तं, तिहि दिवसे गीतसंवसणं॥
अतिखेव पोरिसिवहे, न वावि ठायंति तो वीसुं। ग्राम अथवा उपाश्रय में जिनके पृथक् परिक्षेप हों वे ही दोष यदि दुर्लभ भिक्षावाले स्वग्राम में उद्भ्रामक भिक्षाचारहोते हैं। उसमें नानात्व यह है कि तीसरे दिन गीतार्थ के साथ वाली पल्लियों में रहते हैं और अतिशय कालक्षेप से ज्यों-त्यों संवास करे।
पर्याप्त भिक्षा प्राप्त करते हैं। इससे दूसरी और चौथी पौरुषी का २७२८. एवं पि भवे दोसा, दोसुं दिवसेसु जे भणियपुव्विं।। हनन हो जाता हो तो गीतार्थ के अभाव में वे पृथक्-पृथक् अन्य
__ कारणियं पुण वसही, असती भिक्खोभए जतणा॥ क्षेत्रों में रहते हैं।
तीसरे दिन गीतार्थ के साथ संवास किया। परंतु पूर्व कथित २७३५. उभयस्स अलंभम्मि वि, दोष दो दिनों के होते हैं। यह सूत्र कारणिक है। यदि वसति न हो
गीताऽसति वीसु ठंति अगडसुता। अथवा भिक्षा सबके लिए उपलब्ध न हो तो यतनापूर्वक पृथक्
दुसु तीसु व ठाणेसुं, पृथक् रहा जा सकता है।
पतिदिवसालोय आयरिओ। २७२९. संकिट्ठा वसधीए, निवेसणस्संत अन्नवसधीए। उभय अर्थात् वसति और भिक्षा की उपलब्धि के अभाव में
असतीय वाडगंतो, तस्सऽसती होज्ज दूरे वा॥ गीतार्थ के न देने पर अगीतार्थ मुनि दो-तीन स्थानों में अलग
वसति संकडी हो तो एकनिवेशन से पृथक् अन्य वसति में अलग रहते हैं। आचार्य प्रतिदिन उनके पास जाकर प्रतिपृच्छा रहा जाए। वह न हो तो वाटक से पृथक् अन्य वसति में रहे। आदि करें, उनकी सार संभाल करें। उसके अभाव में निकट अथवा दूर वसति में भी रहा जा सकता २७३६. सइरी भवंति अणवेक्खणाय जइ भिन्नवायणा लोए।
__ पडिपुच्छ सोहि चोयण, तम्हा उ गुरू सया वया २७३०. वीसुं पि वसंताणं, दोण्णि वि आवासगा सह गुरूहिं। अलग-अलग रहने वाले मुनियों की सार-संभाल किए
दूरे पोरिसिभंगे, उग्घाडागंतु विगडेंति॥ बिना वे स्वच्छंदचारी हो जाते हैं और लोगों में वे भिन्न प्ररूपणा अलग-अलग रहते हुए भी दोनों आवश्यक प्राभातिक करने लग जाते हैं अथवा लोगों में भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें होने और वैकालिक प्रतिक्रमण गुरु के साथ करे। यदि दूर (अन्य गांव लग जाती हैं। इसलिए गुरु स्वयं वहां जाकर प्रतिपृच्छा करते हैं, में) हों और पौरुषी का भंग होता है तो उद्घाट पौरुषी में आचार्य प्रायश्चित्त देकर शोधि करते हैं तथा शिक्षा आदि देते हैं। के पास आकर आलोचना, प्रत्याख्यान आदि करे।
२७३७. तण्हाइयस्स पाणं, जोग्गाहारं च णेति पव्वोणिं। २७३१. गीतसहाया उ गता, आलोयण तस्स अंतियं गुरुणं।
कितिकम्मं च करेंती, मा जुण्णरहोव्व सीदेज्जा।। __ अगडा पुण पत्तेयं, आलोएंती गुरुसगासे॥ जब आचार्य स्वयं वहां जाते हैं तब वे मुनि तृषित आचार्य
गीतार्थसहाय भिक्षु दूर जाने पर गीतार्थ के आगे आलोचना के योग्य पानी और योग्य आहर सम्मुख ले जाते हैं। वे उनका करे। वह गीतार्थ गुरु के समीप जाकर कहता है। कोई गीतार्थ कृतिकर्म, विश्रामणा करते हैं, जिससे कि जीर्ण रथ की भांति सहायक न हो तो वे अकृतश्रुत मुनि गुरु के पास आकर अपनी- दुःख न पाएं। अपनी आलोचना करता है।
२७३८. असती निच्चसहाए, गेण्हति पारंपरेण अण्णोऽण्णे। २७३२. एंताण य जंताण य, पोरिसिभंगो ततो गुरु वयंती।
ते चिय अण्णेहि सम, तं मेलेउं नियत्तेति।। थेरे अजंगमम्मि उ, मज्झण्हे वावि आलोए। यदि आचार्य का कोई नित्य सहायक न हो तो वे आचार्य
वसति दूर है। आने-जाने में पौरुषी-भंग होता है तो गुरु वहां आकर क्रमशः दूसरे-दूसरे सहायक को ग्रहण करें। एक स्वयं उनके पास आते हैं। आचार्य यदि स्थविरत्व और सहायक उनको वहां तक ले जाता है जहां दूसरे मुनि हों। वहां से अजंगमत्व के कारण न आ सकने पर वे अकृतश्रुत मुनि मध्यान्ह दूसरा सहायक आचार्य को तीसरे सहायक से मिलाकर लौट में जाकर गुरु के समीप आलोचना करते हैं।
आता है। २७३३. एवं पि दुल्लभाए, पडिवसभठिया न एंति पतिदिवसं। २७३९. एगत्थ वसितो संतो, तेसिं दाऊण पोरिसिं। समणुण्णदढधिती य, अतरुणे बाहिं विसज्जेंति॥
मज्झण्हे बितियं गंतुं, भोत्तुं तत्थावरं वए।। इससे भी दुर्लभ वसति में प्रतिवृषभस्थित भिक्षु प्रतिदिन आचार्य एकत्र रहकर उनको पौरुषी देकर मध्यान्ह में दूसरे गुरु के पास नहीं आते। तब आचार्य समोज्ञ, दृढ़धृतिवाले, स्पर्धक मुनियों के पास जाकर आहार कर, उनको प्रायश्चित्त
अतरुण-मध्यमवय से ऊपर वाले वृषभों को वहां भेजते हैं। देकर तीसरे स्पर्धक के पास जाते हैं और आलोचना आदि देकर Jain Education International For Private & Personal Use Only
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