________________
हैं।
पहा
२५०
सानुवाद व्यवहारभाष्य हैं। इस वचन के आधार पर अन्य अतिशय भी कहे गए हैं। इन गुणोत्कीर्तन सुनकर पृच्छा के लिए आते हैं। इससे दो लाभ होते पांचों में से कोई भी एक अनाचार्य में नहीं किया जाता। आचार्य हैं-धर्म सुनकर वे अगारधर्म अथवा अनगारधर्म स्वीकार करने में पांचों अतिशयों में से किसी एक अतिशय का न होना अर्थात् के लिए तत्पर हो सकते हैं। न करना अतिचार है।
२६८२. कर-चरण-नयण-दसणाइ२६७५. भत्ते पाणे धोव्वण, पसंसणा हत्थ-पायसोए य।
धोव्वणं पंचमो उ अतिसेसो। आयरिए अतिसेसा, अणातिसेसा अणायरिए।
आयरियस्स उसययं, भक्त, पान, प्रक्षालन, प्रशंसन तथा हाथपैर की विशुद्धि-ये
कायव्वो होति नियमेणं॥ आचार्य के पांच अतिशय हैं। अनाचार्य में ये अनतिशय हैं।
आचार्य का पांचवां अतिशय है-कर, चरण, नयन, दशन २६७६. कालसभावाणुमतं, भत्तं पाणं च अच्चितं खेत्ते। आदि का प्रक्षालन। आचार्य के ये सतत तथा नियमतः करने होते
मलिणमलिणा य जाता, चोलादी तस्स धुव्वंति॥
आचार्य का पहला अतिशय है-कालानुमत और २६८३. मुह-नयण-दंत पायादिधोव्वणे को गुणो त्ति ते बुद्धी। स्वभावानुमत भक्त की प्राप्ति तथा जिस क्षेत्र में जो पानी अर्चित
अग्गि मति-वाणिपडुया, होति अणोत्तप्पया चेव।। है-यह दूसरा अतिशय है। चोलपट्ट आदि जिसके मलिन-मलिन मुख,नयन दंत, पाद आदि धोने में क्या गुण है-यह प्रश्न हो गए हैं, उनका प्रक्षालन करना-यह तीसरा अतिशय है। होता है। आचार्य कहते हैं-इनके प्रक्षालन से अग्नि की पटुता, २६७७. परवादीण अगम्मो, नेव अवण्णं करेंति सुइसेहा। मति और वाक्पटुता होती है तथा नयन, पाद आदि के प्रक्षालन
जध अकधितो वि नज्जति, एस गणी उज्जपरिहीणो॥ से अलज्जनीयशरीरता होती है। (आचार्य के वस्त्र प्रक्षालन क्यों ?) वे परवादी के लिए २६८४. असढस्स जेण जोगाण, संधणं जध उ होति थेरस्स। अगम्य हों, शुचिशैक्ष-शुचिता को विशेष मानने वाले शैक्ष
तं तह करेंति तस्स उ, जध से जोगा न हायंति॥ उनकी अवज्ञा न करे तथा बिना कहे भी दूसरा जान जाए कि ये जैसे अशठभाव से प्रवर्तमान स्थविर के जिस प्रकार योगों गणी हैं, आचार्य हैं। जो स्वाभाविक सौंदर्य से परिहीन हों,उन्हें का संधान हो वैसे किया जाता है। उसी प्रकार आचार्य के भी वस्त्रप्रक्षालन से वैसा करना चाहिए।
वैसा ही करते हैं जिससे उनके योगों की हानि न हो। २६७८.जध उवगरणं सुज्झति, परिहरमाणो अमुच्छितो साहू। २६८५. एते पुण अतिसेसे, णोजीवे वावि को वि दढदेहो।
तह खलु विसुद्धभावो, विसुद्धवासाण परिभोगो।। निदरिसणं एत्थ भवे, अज्जसमुद्दा य मंगू य॥
जैसे साधु अमूर्छा भाव से उपकरणों का उपभोग करता इन अतिशयों को कोई दृढ़शरीरी आचार्य नहीं जीता। यहां हुआ शुद्ध है, वैसे ही आचार्य भी विशुद्धभाव से विशुद्धवस्त्रों का दो आचार्यों का निदर्शन है-आर्यसमुद्र तथा मंगू आचार्य। परिभोग करता हुआ शुद्ध है।
२६८६. अज्जसमुद्दा दुब्बल, कितिकम्मा तिण्ण तस्स कीरंति। २६७९. गंभीरो मद्दवितो, अब्भुवगतवच्छलो सिवो सोमो।
सुत्तत्थपोरिसि समुट्ठियाण ततियं तु चरमाए॥ विच्छिण्णकुलुप्पण्णो, दाया य कतण्णु तह सुतवं॥ आर्यसमुद्र दुर्बलशरीरी थे। उनके तीन कृतिकर्म२६८०. खंतादिगुणोवेओ, पहाणणाण-तव-संजमावसहो। विश्रामणारूप किए जाते थे। एक सूत्र पौरुषी की समाप्ति के बाद,
___ एमादि संतगुरुगुणविकत्थणं संसणातिसए॥ दूसरा अर्थपौरुषी की समाप्ति के बाद तथा तीसरा चरमपौरुषी के
(प्रशंसनातिशय) गुरु गंभीर हैं, मृदुता से युक्त हैं, समय। अभ्युपगत शिष्यों के लिए वत्सल हैं, शिव-अनुपद्रवकारी हैं, २६८७. सडकुलेसु य तेसिं, दोच्चंगादी उ वीसु घेप्पंति। सौम्य हैं, विस्तीर्णकुलोत्पन्न हैं, दाता हैं, कृतज्ञ और श्रुतवान् हैं,
मंगुस्स य कितिकम्मं, न य वीसं घेप्पते किंची। क्षांति आदि गुणों से युक्त हैं, ज्ञानप्रधान तप और संयम के
आचार्यों के लिए श्राद्धकुलों से अलग-अलग पात्रों में भक्त आवासस्थल हैं-आदि सद्गुरु के गुणों की श्लाघा करना, कथन आदि लेते हैं। आर्य समुद्र के इसी प्रकार आता था। परंतु आर्य करना प्रशंसनातिशय है।
मंगु के न कोई कृतिकर्म था और न अलग पात्रों में कुछ भी लाया २६८१. संतगुणुक्कित्तणया, अवण्णवादीण चेव पडिघातो।। जाता था।
अवि होज्ज संसईणं, पुच्छाभिगमे दुविधलंभो॥ २६८८. बेंति ततो णं सड्ढा, तुज्झ वि वीसुं न घेप्पते कीस। सद्गुणों के कीर्तन से अवर्णवादियों का प्रतिघात होता है
तो बेंति अज्जमंगू, तुब्भेच्चिय एत्थ दिटुंतो॥ तथा जो संशयी अर्थात् जिज्ञासु होते हैं, वे आचार्य का एक बार आचार्यों के दो श्रावक-शाकटिक और वैकटिक, Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org