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छठा उद्देशक
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सागारिक जो बाहर बैठा है वह चल है, मुहूर्त्तकाल में मात्र जाने ऋद्धिमान् वृद्ध राजा आदि प्रव्रजित हो, अथवा कोई शैक्ष हो इनके वाला है, तो स्थविर मुहूर्त्तक (सप्ततालमात्र अथवा ऊपर पादधूली गिरने पर ये रुष्ट होकर भंडन न करें इसलिए सूत्र सप्तपदातिक्रमण) काल तक ठहरें।
में 'निगिज्झ जयणाए' ऐसा पाठ है, अर्थात् यतनापूर्वक प्रर्माजन २५२५. थिरवक्खित्ते सागारिए अणुवउत्ते पमज्जिउं पविसे। करे।
निविक्खित्तुवउत्ते, अंतो तु पमज्जणा ताहे॥ २५३०.थाणे कुप्पति खमगो,किं चेव गुरुस्स निग्गमो भणितो। जो सागारिक स्थित है, व्याक्षिप्त है तथा अनुपयुक्त है,
भण्णति कुल-गणकज्जे, चेइयनमणं च पव्वेसु॥ उसके बाहर रहते आचार्य बाहर पैर प्रमार्जन कर वसति में प्रवेश स्थान पर क्षपक पादधूली के गिरने से कुपित हो सकता करते हैं। जो सागारिक स्थिर है, अव्याक्षिप्त है तथा उपयुक्त है, है। परंतु शिष्य पूछता है-किस कारण से गुरु का निर्गम कहा उसके बाहर रहते आचार्य भीतर पैर का प्रमार्जन करते हैं। यह गया है ? आचार्य उत्तर देते हैं-कुल, गण आदि का कार्य विहित है।
उपस्थित होने पर तथा पर्व दिनों में चैत्यगमन के प्रयोजन से गुरु २५२६. आभिगहितस्स असती,
का निर्गम होता है। तस्सेव रयोहरणेणऽण्णतरे। २५३१. जदि एवं निग्गमणे, भणाति तो बाहि चिट्ठए पुच्छे। पाउंछणुण्णितेण व,
वुच्चति बहि अच्छंते चोदग गुरुणो इमे दोसा॥ पुच्छंति अणण्णभुत्तेणं॥ शिष्य पूछता है-यदि इन प्रयोजनों से आचार्य का निर्गमन किसी मुनि ने आचार्य के पादपोंछन का अभिग्रह ले रखा। कहा गया है तो वे लौटकर वसति के बाहर ही रहकर पादस्फोटन हो और प्रमार्जन की वेला में वह उपस्थित न हो तो कोई मुनि करे (जिससे कि क्षपक आदि के दोष परित्यक्त हो जाते हैं।) आचार्य के रजोहरण से अथवा और्णिक पादपोंछन, जो अन्य। आचार्य कहते हैं-वत्स! आचार्य का वसति के बाहर ठहरना द्वारा काम में न लिया गया हो, उससे आचार्य का पाद-प्रमार्जन अनेक दोषों का कारण बनता है। करे।
२५३२. तण्हुण्हादि अभावित वुड्ढा वा अच्छमाण मुच्छादी। २५२७. विपुलाए अपरिभोगे, अप्पणोवासए व चिट्ठस्स।
विणए गिलाणमादी, साधू सण्णी पडिच्छंती॥ एमेव य भिक्खुस्स वि, नवरिं बाहिं चिरतरं तु॥ तृषा, गर्मी से आभावित, वृद्ध आदि प्रतीक्षा करते हुए
यदि वसति विपुल हो, विस्तीर्ण हो तो आचार्य उस वसति मूर्छा आदि प्राप्त, विनय से प्रतीक्षा करते हुए ग्लानत्व आदि, के अपरिभोग वाले अवकाश में बैठकर पादों का प्रर्माजन करे। साधु, श्रावक....(व्याख्या अगली गाथाओं में।) यदि वसति संकरी हो और वहां आचार्य के बिछौने का अवकाश २५३३. तिण्हुण्हभावियस्सा, पडिच्छमाणस्स मुच्छमादी च। हो तो वहां स्थित आचार्य के पादों का प्रमाजन इस प्रकार करे
खद्धादियणगिलाणे, सुत्तत्थविराधणा चेव ॥ जिससे धूली अन्य साधुओं पर न पड़े। भिक्षुओं के लिए भी यही आचार्य कुल आदि कार्य से बाहर जाकर वसति में पुनः विधि है। विशेष यह है कि यदि वसति के बाहर सागारिक बैठा हो ___लौट आने पर गर्मी से आभावित तथा तृषाभिभूत होकर बाहर तो चिरतर काल तक भी प्रतीक्षा करे। (यदि साधु वसति के यदि प्रतीक्षा करते हैं तो मूर्छा आदि से ग्रस्त हो सकते हैं। फिर बाहर पादप्रमार्जन कर भीतर प्रवेश करता है तो प्रायश्चित्त है यदि वे तृषा के कारण प्रचुर पानी ग्रहण करते हैं तो अजीर्ण के मासलघु।)
रोग से ग्लान हो जाते हैं। उससे सूत्रार्थ की परिहानि और २५२८. निग्गिज्झ पमज्जाही, अभणंतस्सेव मासियं गुरुणो। आचार्य की विराधना भी हो सकती है, उनकी मृत्यु भी हो सकती
__ पादरए खमगादी, चोदगकज्जे गते दोसा॥ है। अथवा सूत्रार्थ की परिहानि से साधुओं के ज्ञान आदि की
वसति के भीतर स्वयं के पादप्रमार्जन करने के लिए तत्पर विराधना हो सकती है। भिक्षु को आचर्य कहे-'आर्य! यतनापूर्वक पादप्रमार्जन करो।' २५३४. वुड्डाऽसहु सेधादी, खमगो वा पारणम्मि भुक्खुत्तो। यदि आचार्य ऐसा नहीं कहते तो मासलघु का प्रायश्चित्त आता
अच्छति पडिच्छमाणो, न मुंजऽणालोइयमदिटुं।। है। पादप्रमार्जन से क्षपक आदि धूली से भर सकते हैं। (शिष्य ने वृद्ध, असह, शैक्ष आदि मुनि आचार्य की प्रतीक्षा करते हैं, पूछा-आचार्य बाहर क्यों जाते हैं ?) आचार्य कहते हैं-प्रयोजन (वे तृषा आदि से पीड़ित होते हैं।) क्षपक बुभुक्षा से आर्त्त होकर होने पर बाहर न जाने से अनेक दोष होते हैं।
पारणक के लिए प्रतीक्षा करता है। उसने अब भी कुछ नहीं खाया २५२९. तवसोसितो व खमगो,इड्डिम-वुड्डो व कोच्चितो वावि। क्योंकि उसने न आलोचना की है और न गुरु के दर्शन किए हैं।
मा भंडण खमगादी, इति सुत्त निगिज्झ जतणाए॥ २५३५. परिताव अंतराया, दोसा होति अभुंजणे। तपस्या से शोषित शरीर वाला तपस्वी मुनि अथवा
भुंजणविणयादीया, दोसा तत्थ भवंति तु॥
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