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मायण.
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सानुवाद व्यवहारभाष्य आचार्य का आभाव्य होता है। यहां व्यक्षर-दास तथा खर का को भेजकर सहयोग दे। दृष्टांत है। मेरे दास ने गधा खरीदा। दास भी मेरा और गधा भी २१८३. पहाभिक्खकितीओ, करेंति सो यावि ते पवाएति। मेरा।
न पहुप्पंते दोण्ह वि, गिलाणमादीसु च न देज्जा। २१७७. चारियसुत्ते भिक्खू, थेरो वि य अधिकितो इह तेसिं। शैक्ष के शिष्य रत्नाधिक के वस्त्रों की प्रतिलेखना करते हैं,
दोण्ह वि विहरताणं, का मेरा लेसतो जोगो॥ भिक्षा लाकर देते हैं, कृतिकर्म करते हैं। रत्नाधिक भी उनको
चारिका सूत्र में भिक्षु और स्थविर का अधिकार था। प्रवाचना देता है, सूत्रों का श्रवण करवाता है। वे शिष्य ग्लान प्रस्तुत सूत्र में दोनों के विहरण संबंधी क्या मर्यादा है इसका आदि के प्रयोजन में व्याप्त होकर सेवा करने में समर्थ नहीं होते। कथन है। यह सामान्यतः पूर्वसूत्र के साथ इस सूत्र का योग है। अथवा वे दो ही हों तो रत्नाधिक को कोई साधु न दे। २१७८. साहम्मियत्तणं वा, अणुयत्तति होतिमे वि साधम्मी। २१८४. अत्तीकरेज्जा खलु जो विदिण्णे, उवसंपया व पगता, इह पि उवसंपया तेसिं।।
एसो वि मज्झंति महंतमाणी। अथवा प्रस्तुत सूत्र में साधर्मिकत्व का अनुवर्तन है-यह भी
न तस्स ते देति बहिं तु नेलं, संबंध है। शैक्ष और रात्निक-दोनों साधर्मिक हैं। साधर्मिक के
तत्थेव किच्चं पकरेंति जं से॥ प्रस्ताव से यह तीसरे प्रकार से संबंध योग है। पूर्ववत् प्रस्तुत जो भेजे हुए साधुओं को अपना बना लेता है तथा जो सूत्र में शैक्ष और रत्नाधिक की उपसंपदा के विषय में कहा गया महामानी यह कहता है-यह शैक्ष भी मेरा है। उन साधुओं को है, यह भी पूर्वसूत्र से संबंध योग है।
उस स्थान से बाहर ले जाने नहीं देता, वे उसका कार्य वहीं स्थित २१७९. साधम्मि पडिच्छन्ने, उवसंपय दोण्ह वी पलिच्छेदो। रहकर करते हैं।
__ वोच्चत्थ मासलहुओ, कारण असती सभावो वा॥ २१८५. वारंवारेण से देति, न य दावेति वायणं । शैक्ष और रत्नाधिक दोनों सह विहरण करते हैं। शैक्ष
तह वि भेदमिच्छंत, अविकारी तु कारए॥ सपरिच्छन्न-परिवारसहित है। दोनों भावपरिच्छन्न युक्त हैं। शैक्ष अथवा बारी-बारी से एक-एक साधु को सुश्रूषणा के लिए रत्नाधिक को उपसंपदा दे। शैक्ष रत्नाधिक के आगे और देता है, भेजता है, वाचना नहीं दिलाता। फिर भी वह दुःस्वभाव रत्नाधिक शैक्ष के आगे आलोचना करे। विपर्यास होने पर दोनों । के कारण गणभेद करना चाहता है। इसलिए जो अविकारी होता को मासलघु का प्रायश्चित्त। ग्लानत्व आदि कारण होने पर है, उसको भेजकर उसका कार्य कराया जाता है। सहायक के अभाव में सहायक न भी दे। अथवा आत्मीय बना देने २१८६. रायणियपरिच्छन्ने, उवसंप पलिच्छओ य इच्छाए। के स्वभाव के कारण सहायक न भी दे। (इनकी व्याख्या आगे।)
सुत्तत्थकारणा पुण, पलिच्छदं देंति आयरिया।। २१८०. सज्झंतियंतवासिणो, दो वि भावेण नियमसो छन्नो। यदि रात्निक परिच्छन्न, परिवारोपेत है,वह शैक्ष को अपनी
रायणिए उवसंपय, सेहतरगेण य कायव्वो॥ इच्छा से उपसंपदा तथा परिच्छद दे। आचार्य भी सूत्रार्थ के
वे दोनों मुनि एक ही गुरु के अंतेवासी हैं तथा सह- कारण उपसंपदा तथा परिच्छद देते हैं। अध्यायी हैं। वे दोनों नियमतः भाव से परिच्छन्न हैं। शैक्षतर जो २१८७. सुत्तत्थं जदि गिण्हति, तो से देति पलिच्छदं। द्रव्य परिच्छन्न हैं, वह रत्नाधिक को उपसंपन्न करे।
गहिते वि देति संघाडे, मा से नासेज्ज तं सुतं । २१८१. आलोइयम्मि सेहेण, तस्स विगडे उ पच्छराइणिओ। जिससे सूत्रार्थ ग्रहण करता है उसे परिच्छद देता है।
इति अकरणम्मि लहुगो, अवरोवर गव्वतो लहुगा॥ सूत्रार्थ ग्रहण कर लेने पर भी संघाटक देते हैं जिससे कि वह
पहले शैक्ष रत्नाधिक के समक्ष आलोचना करे। फिर भिक्षाचर्या आदि के व्याक्षेप से वह गृहीत श्रुत नष्ट न हो जाए। रत्नाधिक शैक्ष के समक्ष आलोचना करे। यह न करने पर दोनों २१८८. अबहुस्सुते न देती, निरुवहते तरुणए य संघाडं। को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि दोनों गर्विष्ठ हो जाते हैं
घेत्तूण जाव वच्चति, तत्थ उ गोणीय दिÉतो।। तो दोनों को लघुमास का प्रायश्चित्त लेना होता है।
अबहुश्रुत तथा निरुपहत (स्वस्थ) तरुण को संघाटक नहीं २१८२. एगस्स उ परिवारो, बितीए रायणियत्तवादो य। दिया जाता तथा जो प्रदत्त साधुओं को विपरिणत कर, साथ
इति गव्वो न कायव्वो, दायव्वो चेव संघाडो॥ लेकर चला जाता है, उसको भी संघाटक नहीं देते। यहां गाय का एक का (शैक्ष का) द्रव्य परिवार है और एक का दृष्टांत मननीय हैरात्निकत्ववाद है-अर्थात् यह रत्नाधिक है-यह प्रवाद है। दोनों २१८९. साडगबद्धा गोणी, जध तं घेत्तुं पलाति दुस्सीलो। को गर्व नहीं करना चाहिए। शैक्ष रत्नाधिक को संघाटक दे-मुनि इय विप्परिणामेंते, न देज्ज संते वि हु सहाए।
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