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चौथा उद्देशक कालच्छेद करते हैं अर्थात् ऋतुबद्धकाल में प्रतिमास एक-एक वसति में रहते है, वर्षा में चार मास तक एक वसति में रहते हैं। वे काल को विपरीत नहीं करते अर्थात् ऋतुबद्धकाल में वर्षाकल्प और वर्षाकाल में ऋतुबद्धकल्प नहीं करते। ऋतुबद्ध-काल में तीन प्रकार की यतना होती है। २२८१. अव्विवरीतो नामं, काल उवट्ठाण दोसपरिहाणी।
असती वसधीए पुण, अव्विवरीतो उवढे वि॥
अविपरीत काल करने से उपस्थान-नित्यवास के दोष का परिहार होता है। वसति आदि के अभाव में उपस्थ-एक ही वसति में सतत रहने पर भी अविपरीत आचरण करे, यतना करे। २२८२. तिविधा जतणाहारे, उवही सेज्जासु होति कायव्वा।
उग्गमसुद्धा तिण्णि वि, असतीए पणगपरिहाणी॥ तीन प्रकार की यतना-आहार, उपधि तथा शय्या (वसति) के प्रसंग में उद्गम, उत्पादन और एषणाशुद्धि से तीनों का ग्रहण करे। इनके अभाव में पंचक परिहानि से उनका उत्पादन करे। २२८३. सेलियकाणिट्टघरे, पक्केट्टामेय पिंडदारुघरे।
कडितं कडगतणघरे, वोच्चत्थे होति चउगुरुगा। वसति के ये प्रकार हैं१. शैलिक-पत्थर की ईंटों से निर्मित। २. काणेष्ट-लोह की ईंटों से निर्मित। ३. पक्वेष्ट-पकाई हुई ईंटों से निर्मित। ४. आमेय-अपक्क ईंटों से निर्मित। ५. पिंडगृह-गारे से निर्मित। ६. दारुगृह-लकड़ी से निर्मित। ७. कटितगृह-कटकगृह-बांस से निर्मित। ८. तृणगृह-तृण से निर्मित।
इतने प्रकार होते हुए प्रथम प्रकार में रहे। उसके अभाव में दूसरे। उसके अभाव में तीसरे.... इस प्रकार की वसति ग्रहण करे। इसमें विपर्यास करने पर चार गुरुक मास का प्रायश्चित्त आता है। २२८४. कोट्टिमघरे वसंतो, आलित्तम्मि विन डज्झती तेण।
सेलादीणं गहणं, रक्खति य निवातवसधी उ॥
कोटिय (शिला आदि से निर्मित बद्धभूमी) गृह में रहने वाला मुनि, उस घर में आग लग जाने पर भी उससे वह जलता १. उस समय यह परंपरा थी कि लोग दादी-परदादी या नानी-परनानी
की परंपरा से प्राप्त चंपकवृक्ष के पट्ट का मंगलबद्धि से संरक्षण करते थे। वे उत्सव के दिनों में उसकी अर्चा-पूजा करते थे, फूल आदि चढ़ाते थे। उस पट्ट का उपभोग कोई नहीं करता था। मुनि वैसे पट्ट की याचना करते हुए कहते-हमारे आचार्य स्थविर हैं। यह पट्ट हमें पाडिहारिय रूप में दें। संयमी मुनि पूज्य देवताओं के भी पूज्य
नहीं। अथवा निवात वसति शीत आदि से रक्षा करती है, इसलिए भी शैल आदि का ग्रहण किया गया है। २२८५. थिरमउयस्स उ असती,
अप्पडिहारिस्स चेव वच्चंति। बत्तीसजोयणाणि वि,
आरेण अलब्भमाणम्मि|| ... स्थिर और मृदु अप्रतिहार्य संस्तारक ग्रहण करना चाहिए। उसके अभाव में वसति का जो निवेशनगृह हो उससे लाना चाहिए। वहां भी न मिलने पर (स्वग्राम, परग्राम, एककोश यावत्) बत्तीस योजन दूर तक जाकर लाना चाहिए। २२८६. वसधिनिवेसण साही, दूराणयणं पि जो उ पाउग्गो।
असतीय पाडिहारिय, मंगलकरणम्मि नीणेति॥
सर्वप्रथम वसति में ही संस्तृत संस्तारक की गवेषणा करे। न मिलने पर वसति के निवेशनगृह में, फिर वाटक में। वहां भी न मिलने पर प्रायोग्य संस्तारक दूर से भी (३२ योजन उत्कृष्ट) लाना चाहिए। इतने पर भी अप्रतिहार्य संस्तारक न मिलने पर प्रतिहार्य संस्तारक जो मंगलकरण के निमित्त किसी गृह में लाया गया हो तो उसे लाना चाहिए। २२८७. ओगाली फलगं पुण, मंगलबुद्धीय सारविज्जंतं।
पुणरवि मंगलदिवसे, अच्चितमहितं पवेसेंति॥
ओगाली (उगाल) फलक अर्थात् चंपकवृक्ष की लकड़ी से निर्मित पट्ट का मंगलबुद्धि से लोग संरक्षण करते हैं। मुनि स्थविर के लिए वैसा ही पट्ट प्रतिहार्य के रूप में ले आते हैं। मंगलदिन में उसे पुनः लौटा देते हैं तथा पुनः मंगलदिन में अर्चित और पूजित उस चंपकपट्ट को अपनी वसति में ले आते हैं।' २२८८. पुव्वम्मि अप्पिणंती, अण्णस्स व वुडवासिणो देंति।
मोत्तूण वुड्डवासिं, आवज्जति चउलहू सेसे।।
वृद्धावास के पूर्ण हो जानेपर वह पट्ट मूल गृहस्वामी को समर्पित कर देते हैं अथवा अन्य वृद्धवासी को संभला देते हैं। यदि वृद्धवासी को छोड़कर दूसरे मुनियों को देते हैं तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। २२८९. पडियरति गिलाणं वा,
सयं गिलाणो वि तत्थ वि तधेव। भावितकुलेसु अच्छति,
असहाए रीयतो दोसा।। होते हैं। फिर आपके लिए तो क्या? तब गृहस्वामी कहता हैआप सच कह रहे हैं। पट्ट आप ले जाएं, पंरतु उत्सव के दिन इसे लौटाना होगा, जिससे कि हम पूजा-अर्चना कर सकें। पुनः आप इसको ले जा सकेंगे। साधु उस पट्ट को ले आते हैं और उत्सव के दिन पुनः लौटा देते हैं तथा उत्सव बीतने पर पुनः वसति में उसे ले आते हैं।
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