Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 265
________________ २२६ सानुवाद व्यवहारभाष्य २३८७. गंभीरा मद्दविता, मितवादी अप्पकोउहल्ला य। था, संग्रहण किया था।) साधु गिलाणगं खलु, पडिजग्गति एरिसी अज्जा॥ २३९४. पडिसिद्धमणुण्णातं, वेयावच्चं इमं खलु दुपक्खे। संबंधिनी, गीतार्था, व्यवसायिनी, स्थिर, कृतकरण, सा चेव य समणुण्णा, इहं पि कप्पेसु नाणत्तं॥ चिरप्रव्रजित, बहुश्रुत, पारिणामिक, गंभीर, मृदुतापेत, मितवादी, पूर्वसूत्र में विपक्ष-वैयावृत्त्य का प्रतिषेध है। प्रस्तुत सूत्र में अल्पकुतूहल-इन गुणों से युक्त साध्वी ग्लान साधु की वैयावृत्त्य द्विपक्ष वैयावृत्त्य की अनुज्ञा है। उसी वैयावृत्त्य की समनुज्ञा है। कर सकती है। केवल कल्प संबंधी नानात्व है। २३८८. ववसायी कायव्वे, थिरा उ जा संजमम्मि होति दढा। २३९५.अत्येण व आगाद, भणितं इहमवि य होति आगाढं। कतकरण जीय बहुसो, वेयावच्चा कया कुसला।। अहवा अतिप्पसत्तं, तेण निवारेति जिणकप्पे॥ जो कर्त्तव्य के प्रति व्यवसायिनी है-तत्पर है, जो संयम में पूर्वसूत्र के अर्थ में आगाद की बात कही है। यहां भी दृढ़ है वह स्थिर होती है तथा जो अनेक बार वैयावृत्त्य कर चुकी आगाढ़ प्रयोजन में वैयावृत्त्यकरण की बात है। अथवा है, वह कृतकरण कुशल है। वैयावृत्त्यकरण अतिप्रसक्त है-परस्पर प्रीतिजनक है, इसलिए २३८९. चिरपव्वइयसमाणं, तिण्हुवरि बहुस्सुया पकप्पधरी। जिनकल्प में उसका निवारण है। परिणामिय परिणामं, सा जाणति पोग्गलाणं तु॥ २३९६. सुत्तम्मि कड्डियम्मी, वोच्चस्थ करेंत चउगुरू होति। जो चिरप्रवजित अर्थात् जिसका संयम-पर्याय तीन वर्षों से आणादिणो य दोसा, विराधणा जा भणितपुव्वं ।। अधिक है, जो बहुश्रुत अर्थात् प्रकल्प की धारक है तथा जो सूत्र का कर्षित-उच्चारण करने पर यह संबंध है। श्रमण पारिणामिक है-पुद्गलों की विभिन्न परिणतियों से अवगत है। श्रमण की तथा श्रमणी श्रमणी की वैयावृत्त्य करे और यदि २३९०. काउं न उत्तुणई, गंभीरा मद्दविया अविम्हइया। विपर्यास करते हैं तो उसका प्रायश्चित्त है चतुर्गुरुक तथा आज्ञा, कज्जे परिमियभासी, मियवादी होइ अज्जा उ॥ अनवस्था आदि दोष तथा पूर्व वैयावृत्त्यसूत्र में कथित शील२३९१. कक्खंते गुज्झादी, न निरिक्खे अप्पकोउहल्ला य। विराधना, वह यहां भी द्रष्टव्य है। एरिसगुणसंपन्ना, साहूकरणे भवे जोग्गा। २३९७. संबंधो दरिसिज्जति,उस्सुत्तो खल न विज्जते अत्थो। जो गंभीर है-वैयावृत्त्य कर गर्वबुद्धि से उसका प्रकाशन उच्चारित छिण्णपदे, विग्गहते चेव अत्थो उ॥ नहीं करती, जो मर्दविनी है-विस्मापित नहीं होती, जो प्रयोजन सूत्र का उच्चारण-यह अनंतर सूत्रों में संबंध प्रदर्शित होने पर भी परिमितभाषिणी-मितवादिनी होती है, जो कक्षांतर, करता है। संबंध अर्थ से होता है, वर्ण से नहीं। अर्थ सूत्ररहित गुह्यप्रदेश आदि का अवलोकन नहीं करती अर्थात् अल्पकुतूहल नहीं होता। उच्चारित सूत्र का पदच्छेद करना चाहिए। जो पद होती है-इन गुणों से सम्पन्न साध्वी साधुओं का वैयावृत्त्य करने विग्रहयोग्य हों उनका विग्रह करना चाहिए। विग्रह के पश्चात् सूत्र के लिए योग्य होती है। से अर्थ की व्याख्या करनी चाहिए। २३९२. पडिपुच्छिऊण वेज्जे,दुल्लभदव्वम्मि होति जतणा उ। विसघाई खलु कणगं, निधि जोणीपाहुडे सड्ढे।। २३९८. अक्खेवो पुण कीरति, वैद्य को पूछकर, यदि दुर्लभ द्रव्य का प्रयोजन हो तो उसकी कत्थतिऽक्खेव विणा वि तस्सिद्धी। प्राप्ति की यह यतना है। स्वर्ण विषघाती होता है। यदि स्वर्ण का जत्थ अवायनिदरिसण, प्रयोजन हो तो पहले उसे निधि के खनन से प्राप्त करे। यदि वह एसेव उ होति अक्खेवो। ज्ञान न हो तो योनिप्राभृत ग्रंथ में उक्त विधि से उसका उत्पादन कहीं आक्षेप किया जाता है। कहीं आक्षेप के बिना भी करे। यदि वह भी न हो तो श्रावकों से याचना कर स्वर्ण प्राप्त करे। उसकी सिद्धि हो जाती है। जहां अपाय का निदर्शन होता है, वहीं २३९३. असतीए अण्णलिंगं, तं पि जतणाय होति कायव्वं। आक्षेप होता है। (क्योकि वह आक्षेप का हेतु है।) - गहणे पण्णवणे वा, आगाढे हंसमादी वि॥ २३९९. किं कारणं न कप्पति, अक्खेवो दोसदरिसणं सिद्धी। स्वर्ण देने वाले श्रावकों के अभाव में साध्वी स्वयं ग्रहण लोगे वेदे समए, विरुद्धसेवादयो णाता। करने अथवा प्रज्ञापना करने के लिए अन्य पूजित लिंग (वेश) को क्या कारण है कि विपक्ष में वैयावृत्त्य नहीं कल्पता-यह यतनापूर्वक धारण करे। उससे भी यदि स्वर्ण की प्राप्ति ने हो तो आक्षेप है। विपक्ष में वैयावृत्त्य के दोषदर्शन की सिद्धि-प्रसिद्धि यंत्रमय हंस आदि का निर्माण कर उसकी प्राप्ति करे। (जैसे- है। लौकिक, वैदिक और सैद्धांतिक-इनमें विरुद्ध सेवा के दोष वर्धकी कोक्कास ने यंत्रमय कापोतों से शालि का उत्पादन किया ज्ञात हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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