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पांचवां उद्देशक
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है।
२३५४. उवहिस्स य छब्भेदा, उग्गम-उप्पायणेसणासुद्धो। की वेला में पूछा जाने लगा, कौन कैसा है?
परिकम्मण-परिहरणा, संजोगो छट्ठओ होति॥ (ग) एक गांव में बड़ा गोवर्ग था। वह बीमारी की चपेट में
उपधिसंभोग के छह प्रकार हैं-उद्गमशुद्ध, उत्पादनशुद्ध, आ गया। अब कोई व्यक्ति गायें लाता तो पूछा जाता-ये गायें एषणाशुद्ध, परिकर्मणासंभोग, परिहरणासंभोग तथा छठा है किस गांव से लाए हो? ये किस गोवर्ग की हैं ? संयोगसंभोग।
(इसी प्रकार सांभोजविधि विनष्ट हो जाने पर संभोजिक की २३५५. एवं जधा निसीधे पंचमउद्देसए समक्खातो।। परीक्षा की जाने लगी।
___ संभोगविधी सव्वो, तघेव इह ई पि वत्तव्वो॥ २३५९. साधम्मिय वइधम्मिय निघरिसभाणे तधेव कूवे य। इस प्रकार निशीथ सूत्र के पांचवें उद्देशक में समाख्यात
गावी पुक्खरिणीया, नीएल्लग सेवगागमणे॥ सारी संभोगविधि यहां उसी प्रकार वक्तव्य है।
साधर्मिक और वैधर्मिक की परीक्षा कर तदनंतर संभोज २३५६. अगडे भाउय तिल-तंदुले,
स्थापित किया जाता है। जैसे स्वर्ण की परीक्षा कषोपल पर की व सरक्खे य गोणि असिवे य।
जाती है वैसे ही अज्ञातशील मुनि की परीक्षा उसके भाजन (तथा अविणढे संभोगे,
उपकरण) से की जाती है। जिस प्रकार कूप, गोवर्ग, पुष्करिणी सव्वे संभोइया आसी॥
तथा दो सेवक सगे भाईयों के गमनागमन की परीक्षा की जाने पूर्वकाल में संभोज की अविनष्ट स्थिति में सभी मुनि
लगी, वैसे ही मुनि की परीक्षा कर संभोज-विसंभोज किया जाता सांभोजिक थे। फिर कालदोष से सांभोजिक, असांभोजिक का विभाग हुआ। इसके छह दृष्टांत हैं-१. अवट (कूप) २. दो भाई
२३६०. एतेसिं कतरेणं, संभोगेणं तु होति संभोगी। ३. तिल ४. तंदुल ५. सरजस्क ६. गोवर्ग, अशिव।
समणाणं समणीओ, भण्णति अणुपालणाए उ॥ २३५७. आगंतु तदुत्थेण व, दोसेण विणट्ठ कूवे तो पुच्छा।
इन उपरोक्त कथित संभोजों में से कितने संभोजों से कउ आणीयं उदगं, अविणद्वे नासि सा पुच्छा।
श्रमणियां-श्रमणों के संभोजिनियां होती हैं ? आचार्य कहते (एक गांव में मीठे पानी के अनेक कूप थे।) आगंतुक दोषों
हैं-अनुपालना संभोज से वे संभोजिनियां होती हैं। से अथवा उन कूपों के दोषों से वे कूप विनष्ट हो गए-उनका पानी पीने योग्य नहीं रहा। अब उस गांव में अन्यत्र से पानी लाते समय
२३६१. आलोयणा सपक्खे, परपक्खे चउगुरुं च आणादी।
भिन्नकधादि विराधण, दट्ठण व भावसंबंधो॥ पूछा जाने लगा-पानी कहां से लाए हो? जब तक कूप अविनष्ट थे
आलोचना सपक्ष से होती है। निग्रंथ निग्रंथ से और निग्रंथी तब तक यह पृच्छा नहीं होती थी। (इस दृष्टांत का उपनय यह
निपॅथी से आलोचना ले। परपक्ष से आलोचना करने पर-निग्रंथ है-जब तक संभोज विनष्ट नहीं हुआ था तब सांभोजिक की परीक्षा नहीं होती थी। जब कुछ मुनि चारित्र से भ्रष्ट हो गए,
निग्रंथी से और निग्रंथी निपँथ से चार गुरुक का प्रायश्चित्त शिथिल हो गए, तब यह परीक्षा होने लगी।)
आता है तथा आज्ञा विराधाना आदि का दोष भी होता है। २३५८. भोइकुल सेवि भाउग, दुस्सीलेगे तु जो ततो पुच्छा।
'भिन्नकथा आदि'-चौथेव्रत के अतिचार की आलोचना करती हुई एमेव सेसएसु वि, होति विभासा तिलादीसु ॥
श्रमणी के 'भिन्नकथा' आदि का दोष होता है। इससे शील दो भाई भोजिककुल (राजकुल) में सेवक थे। राजकुल में
विराधना भी हो सकती है। श्रमण श्रमणी के और श्रमणी श्रमण उनका संचरण अबाधित था। एक भाई दुःशील हो गया। अब
के मुखविकार से भाव को जानकर उनमें परस्पर संबंध हो पूछा जाने लगा-कौन अंतःपुर में जाता है ? इसी प्रकार तिल
सकता है। आदि के शेष दृष्टांतों को जानना चाहिए।
२३६२. मूलगुणेसु चउत्थे, विगडिज्जंते विराधणा होज्जा। (क) नगर की दुकानों पर अच्छे तिल और अच्छे चावल
णिच्छक्क दिट्ठिमुहरागतो य भावं विजाणंति।। मिलते थे। कालांतर में वणिक् के मन में कपट उत्पन्न हुआ। उसने
मूलगुणों में चतुर्थ मूलगुण के अतिचार की आलोचना से खराब तिल और खराब चावल बेचने शुरू किए। अब पूछा जाने
शील की विराधना हो सकती है। श्रमणी निच्छक्क-धृष्ट होकर लगा, तिल कैसे हैं ? चावल कैसे हैं ?
अब्रह्म की याचना कर सकती है अथवा दृष्टिराग और मुखराग से (ख) एक नगर की एक दिशा में अनेक मंदिर थे। सबमें पर का अभिप्राय जान लेने पर संबंध घटित हो सकता है। भिक्षु रहते थे। वे सब सुशील थे। लोग उनकी पूजा करते थे। २३६३. अप्पच्चय निब्भयया,पेल्लणया जई पगासणे दोसा। कालांतर में कुछेक मंदिर के भिक्षु दुःशील हो गए। अब निमंत्रण
वतिणी वि होति गम्मा, नियए दोसे पगासेंती॥
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