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चौथा उद्देशक
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दात ।
गाय जंगल में भाग गई। उसको ग्वाला शाटक से बांध कर रत्नाधिक को मासलघु और इतर को चार लघुमास का ला रहा था। बीच में ही वह दुःशील गाय शाटक के साथ पुनः प्रायश्चित्त आता है। भाग गई। इस प्रकार जो मुनि प्रदत्त साधुओं को विपरिणत कर २१९५. दोसु अगीतत्थेसुं, देता है, उसको, अपने पास सहायक होने पर भी, सहायक न दे।
अधवा गीतेसु सेहतर पुव्वं । २१९०. संखऽहिगारा तुल्लाधिगारिया
जदि नालोयति लहुगो, एस लेसतो जोगो।
न विगडे इयरो वि जदि पच्छा। आयरियस्स व सिस्सो,.
दो अगीतार्थ अथवा गीतार्थ भिक्षुओं के मध्य जो शैक्ष है भिक्खु अभिक्खू अह तु भिक्खू॥ वह पहले रत्नाधिक के समक्ष आलोचना (विहारालोचना) नहीं पूर्वसूत्र में तथा वर्तमान सूत्र में संख्याधिकार से करता तथा रत्नाधिक भी पश्चात् शैक्ष के समक्ष आलोचना तुल्याधिकारता होने से यह लेशतः सूत्र संबंधयोग है। पूर्वसूत्र में (विहारालोचना) नहीं करता तो मासलघु का प्रायश्चित्त आता आचार्य के दो प्रकार के शिष्य भिक्षु और अभिक्षु गृहीत थे। है। प्रस्तुत सूत्र में भिक्षु का प्रसंग है।
२१९६. रायणिए गीतत्थेण, राइणिए चेव विगडणा पुव्विं। २१९१. एमेव सेसएसु वि, गुणपरिवड्डीय ठाणलंभो उ।
देति विहारविगडणं, तो पच्छा राइणियसेहे| दुप्पभिई खलु संखा, बहुओ पिंडो तु तेण परं।। रत्नाधिक गीतार्थ है। शैक्ष अगीतार्थ है। तो शैक्ष पहले इसी प्रकार गणावच्छेदक और आचार्य से संबंधित सूत्रों उसको आलोचना दे। फिर रत्नाधिक शैक्ष को आलोचना दे। का संबंध है। गणावच्छेदक और आचार्य के सूत्र में गुणपरिवृद्धि २१९७. सेहतरगे वि पुव्वं, गीयत्थे दिज्जते पगासणया। से स्थानलाभ होता है। (भिक्षु गुणाधिकता से गणावच्छेदक के
पच्छा गीतत्थो वि हु, ददाति आलोयणमगीतो॥ स्थान को प्राप्त करता है और गणावच्छेदक गुणाधिकता से यदि शैक्षतरक गीतार्थ है तो भी पहले रत्नाधिक उसको आचार्य का स्थान प्राप्त करता है।) दो आदि संख्या बहुक होती आलोचना (दोनों प्रकार की) देता है। फिर शैक्षतरक अगीतार्थ है। तदनंतर पिंड होती है। (इसका तात्पर्य है कि द्विसंख्या वाले रत्नाधिक को आलोचना (विहारालोचना) देता है, अपराधासूत्रत्रयी के पश्चात् बहुसंख्यासूत्र और तदनंतर पिंड सूत्र का लोचना नहीं। कथन है।)
२१९८. अवराहविहारपगासणा य दोण्णि व भवंति गीतत्थे। २१९२. संभोइयाण दोण्हं, खेत्तादी पेहकारणगताणं।
अवराहपयं मोत्तुं पगासणं होतऽगीतत्थे। पंते समागताणं, भिक्खूण इमा भवे मेरा।। गीतार्थ मुनि के समक्ष अपराधप्रकाशना और विहार
दो सांभोगिक आचार्यों के भिक्षु क्षेत्रादि की प्रेक्षा करने प्रकाशना दोनों की जाती हैं। अपराधपद को छोड़कर शेष का गए। वे मार्ग में मिल गए। अब एक ही मार्ग से उन्हें जाना है। प्रकाशन अगीतार्थ के समक्ष किया जाता है। (अगीतार्थ उनकी यह मर्यादा है
अपराधालोचना के अनर्ह होता है।) २१९३. भिक्खुस्स मासियं खलु,
२१९९. भिक्खुस्सेगस्स गतं, पलिच्छणाणं च सेसगाणं तु।
पलिच्छण्णाण इदाणि वोच्छामि। चउलहुगऽपलिच्छण्णे,
दव्वपलिच्छाएणं, तम्हा उवसंपया तेसिं॥
जहण्णेण अप्पततियाणं॥ भिक्षु के मासिक प्रायश्चित्त,परिच्छन्न और शेषक, एक भिक्षु का प्रसंग समाप्त हो गया। अब मैं द्रव्यपरिच्छह अनुपसंपद्यमान अपरिच्छन्न के चार लघुमास, इसलिए उनके से परिच्छन्न भिक्षुओं, जो जघन्य आत्मतृतीय होते हैं, की बात परस्पर उपसंपदा। (व्याख्या आगे की गाथाओं में।)
कहूंगा। २१९४. दो भिक्खूऽगीतत्था,गीता एक्को व होज्ज उ अगीते। २२००. तेसिं गीतत्थाणं, अगीतमिस्साण एस चेव विधी। राइणियपलिच्छन्ने, पुव्वं इतरेसु लहुलहुगा।।
एत्तो सेसाणं पि य, वोच्छामि विधी जधाकमसो।। दो भिक्षु अगीतार्थ हैं, अथवा एक गीतार्थ है और एक उन आत्मतृतीय भिक्षुओं, फिर वे गीतार्थ हों, अगीतार्थ हो अगीतार्थ। भावतः परिच्छन्न रत्नाधिक पहले आचोलना करे। अथवा मिश्र हों, उनकी पूर्वोक्त विधि ही है। अब आगे यथाक्रम फिर इतर अर्थात् अगीतार्थ आलोचना करे। ऐसा न करने पर शेष भिक्षुओं की विधि कहूंगा।
१. अभिक्षु अर्थात् गणावच्छेदक, उपाध्याय अथवा आचार्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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