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सानुवाद व्यवहारभाष्य २०८६. भिक्खूभावो सारण, वारण पडिचोदणं जधापुव्वं। यह ज्ञात करें कि वहां भिक्षा सुलभ है अथवा दुर्लभ। जो गुण
तह चेव इयाणिं पी, निज्जुत्ती सुत्तफासेसा॥ दूसरी बार की पृच्छा में होते हैं, वे ही गुण प्रतिलेखना में है और भिक्षुभाव का अर्थ है-सारणा, वारणा तथा प्रतिचोदना जो दोष दूसरी बार न पूछने में होते है, वे ही दोष अप्रतिलेखना में (निष्ठुर शिक्षापण)। जैसे भिक्षुभाव-पहले था वैसे ही आज भी हैं। है। अब सूत्रस्पर्शिका नियुक्ति कही जा रही है।
२०९१. पच्चंत सावयादी, तेणा दुब्भिक्ख तावसीओ य। २०८७. आकिण्णो सो गच्छो,
नियगपदुद्रुद्धाणा, फेडणा य हरियपण्णी य॥ सुह-दुक्खपडिच्छएहि सीसेहिं। क्षेत्र की प्रागप्रत्युपेक्षणा न करने पर होने वाले दोषदुब्बल-खमग-गिलाणे,
प्रत्यंत-सीमावर्ती म्लेच्छ उपद्रव करने में तत्पर हैं। मार्ग में निग्गम संदेसकहणे य॥ श्वापद तथा चोरों का भय है। उस क्षेत्र में दुर्भिक्ष्य है, वहां सुख-दुःख के लिए उपसंपन्न प्रतीच्छक तथा शिष्यों से । तापसियां अत्यंत मोहग्रस्त होने के कारण ब्रह्मचर्य का आघात वह गच्छ आकीर्ण था। उनमें कुछ साधु दुर्बल हो गए। जो करने के लिए तत्पर रहती हैं, स्वजन अपने नवप्रव्रजित मुनि को तपस्वी थे वे भी दुर्बल हो गए। ग्लान भी दुःख पाते हैं। इन घर ले जाते हैं, कोई प्रद्वेषी वहां कार्यरत है, कदाचित् वह देश कारणों से वे निर्गमन करना चाहते हैं। जिनको निर्गम की आज्ञा उजड़ गया हो, वहां जो पहले वसति थी, वह उखड़ गई हो, वहां देते हैं, आचार्य उनको संदेश देते हैं।
हरितपन्नी-अर्थात् सदा दुर्भिक्ष रहने के कारण लोग हरित का ही २०८८. अहमवि एहामो ता, अण्णत्थ इहेव मं मिलिज्जाह। भक्षण करने वाले हैं।
अतिदुब्बले य नाउं, विसज्जणा नत्थि इतरेसिं॥ २०९२. अण्णत्थ तत्थ विपरिणते या गेलण्णे होति चउभंगो। आचार्य कहते हैं-तुम सब जहां जाओगे मैं भी यहां से वहां
फिडिता गतागतेसु य, अपुण्ण पुण्णेसु वा दोच्चं॥ आ जाऊंगा अथवा अन्यत्र तुम सब आकर मेरे से मिल लेना। अन्यत्र वहां विपरिणत होने पर ग्लानत्व की चतुर्भगी होती आचार्य अतिदुर्बल मुनियों को जानकर उनको अन्यत्र जाने की है। स्फिटित-विपरिणत, गतागत करने पर जितने काल को आज्ञा दे। किंतु दूसरे मुनि जो निष्कारण निर्गमन करना चाहते हों अधिकृत किया है उसके अपूर्ण या पूर्ण होने पर, यदि दूसरी बार उनको विसर्जना-निर्गमन की आज्ञा नहीं देनी चाहिए।
अवग्रह का अनुज्ञापन। २०८९. तं चेव पुव्वभणितं,आपुच्छण मास दोच्चऽणापुच्छा। (यह नियुक्ति गाथा है-इसकी पूर्ण व्याख्या अगली
उवजोग बहिं सुणणा,साधू सण्णी गिहत्थेसु॥ गाथाओं में।) निर्गमन यदि आचार्य को बिना पूछे किया जाता है तो २०९३. अवरो परस्स निस्सं, प्रायश्चित्त है एक लघुमास। जो पृच्छा पहले की है उसी को
जदि खलु सुह-दुक्खिया करेज्जाहि। लेकर गमनकाल में दूसरी बार पृच्छा करनी चाहिए। क्योंकि जब
अब्भतरा उ सेहं, पहले पूछा गया था तब आचार्य अनुपयुक्त थे, फिर उपयुक्त होकर
लभति गुरू पुण न लभती तु॥ उन्होंने बहिर् जाते हुए सुना अथवा किसी साधु, श्रावक अथवा (चरिका में प्रविष्ट अथवा चरिका से निवृत्त होने वाले गृहस्थ से ज्ञात हुआ कि वहां अनेक दोषों की संभावना है। विपरिणत होकर) परस्पर सुखदुःखित की निश्रा करते हैं। इसलिए आचार्य को दूसरी बार पूछना चाहिए।
जितनी कालावधि की है, उसके भीतर अर्थात् उसके पूर्ण होने पर २०९०. नाऊण य निग्गमणं,
अथवा पूर्ण न होने पर जो शैक्ष आदि का लाभ करते हैं, वह भी पडिलेहण सुलभ-दुल्लभ-भिक्खं। उन्हीं का होता है, गुरु को उसका लाभ नहीं मिलता। जे य गुणा आपुच्छा,
२०९४. गेलण्णे चउभंगो, तेसिं अहवा वि होज्ज आयरिए। जे वि य दोसा अणापुच्छा॥
दोण्हं पी होज्जाही, अहव न होज्जाहि दोण्हं पि॥ साधुओं का निर्गमन जानकार आचार्य को चाहिए कि वे ग्लान विषयक चतुर्भंगी यह हैउस क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए अन्य साधुओं को वहां भेजे और १. ग्लान विपरिणतों का होता है, आचार्य का नहीं। १. विस्मृत अर्थ में स्मारणा होती है। अनाचार का प्रतिषेध करना वारणा का पुरुष प्रव्रजित होकर भिक्षा के लिए प्रविष्ट है उसके घर पर
है। स्खलित को पुनः मार्ग पर लाने के लिए शिक्षापण प्रतिचोदना है। आर्द्रवृक्ष की शाखा का चिह्न कर दिया जाता है। जो इस संकेत को २. हरितपण्णी का दूसरा अर्थ है-उस देश में राजा दंड देकर उन व्यक्तियों नहीं जानता वह वहां जाने पर विनष्ट हो जाता है। (वृत्ति)
के घर से देवता की बलि के लिए पुरुष की मांग करता है। जिस घर
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