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चौथा उद्देशक
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२०७३. रायणियस्स ऊ गणो,गीतत्थोमस्स विहरती निस्सा। यदि वह पुनः नई उपसंपदा के लिए (चार-पांच दिन में) आता है
जो जेण होति महितो, तस्साणादी न हावेमि।। तो उसे नये उपसंपन्न व्यक्ति की भांति स्थविरों के पास रत्नाधिक का गण अवम गीतार्थ की निश्रा में रहता है। मैं आलोचना-प्रतिक्रमण करना चाहिए। भी उसकी निश्रा में रहता हूं। उस गण में जो जिस गुण से पूजित २०८०. जइ पुण किं वावण्णो, तत्थ तु आलोइउं उवट्ठाति। होता है, मैं उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता।
विप्परिणम्मि भावे, एमेव अविप्परिणयम्मि।। २०७४. इति खलु आणा बलिया,
विपरिणत भाव के कारण किंचित् प्रायश्चित्तस्थान प्राप्त आणासारो य गच्छवासो उ।। हुआ है तो आचार्य के पास आलोचना करने के लिए उपस्थित मोत्तुं आणापाणुं,
होता है। इसी प्रकार अविपरिणत भाव में भी जानना चाहिए। सा कज्जा सव्वहिं जोगे॥ २०८१. उववातो निद्देसो, आणा विणओ य होंति एगट्ठा। गुरु की आज्ञा बलवती होती है। आज्ञासार है गच्छवास।
तस्सट्ठाए पुणरवि, मितोग्गहो वासगाणुण्णा।। आन-प्राण को छोड़कर सारी प्रवृत्तियों में गुरु की आज्ञा का उपपात, निर्देश, आज्ञा और विनय-ये एकार्थक शब्द हैं। पालन करना चाहिए।
भिक्षुत्व के लिए पुनः मितावग्रह की अनुज्ञा है।। २०७५. अहवा तदुभयहेउं, आइण्णो सो बहुस्सुत गणो उ। २०८२. मितगमणं चेट्टणतो, मितभासि मितं च भोयणं भंते।
उस्सूरभिक्खखेत्ते, चइयाणं चारिया जोगो। __मज्झ धुवं अणुजाणह, जा य धुवा गच्छमज्जाया।।
अथवा वह बहुश्रुत का गण सूत्रार्थ, तदुभयनिमित्त, बहुत भंते! मितगमन, मितअवस्थान, मितभाषण तथा मितप्रातिच्छिकों से आकीर्ण है। उस क्षेत्र में उत्सूर-बहुत परिभ्रमण भोजन की आप मुझे ध्रुव अनुज्ञा दें। ध्रुव गच्छमर्यादा की भी करने के पश्चात् भिक्षावेला मिलती है और रूक्ष भोजन प्राप्त अनुज्ञा दें। (यहां ध्रुव का अर्थ है-अवश्य करणीय।) होता है। उस क्षेत्र को छोड़ने वाले मुनियों के चरिकायोग होता २०८३. निययं च तहावस्सं, अहमवि ओधायमादि जा मेरा। है। यही इस सूत्र का प्रतिपाद्य है।
निच्चं जाव सहाए, न लभामि इधाऽऽवसे ताव।। २०७६. पंचाहग्गहणं पुण, बलकरणं होति पंचहि दिणेहिं। (ध्रुव, नियत और नैत्यिक-ये तीनों शब्द एकार्थक होने पर
एग-दुग-तिण्णि-पणगा, आसज्ज बलं विभासाए॥ भी भिन्नार्थक हैं। ध्रुव का एक अर्थ है-अवश्यकरणीय। वह ऊपर (चरिकायोग में) पांच दिनों का ग्रहण इसलिए किया गया बताया जा चुका है।) उसके शेष दो अर्थ ये हैं-नियत और है कि पांच दिनों में पुनः बल की प्राप्ति हो जाती है। इसी प्रकार नैत्यिक। नियत का अर्थ है-अवश्य, निश्चित। जब तक एक, दो, तीन दिनपंचकों के विकल्प से जब तक बल प्राप्त हो वह अवधावन की मर्यादा है अर्थात् जब तक अवधावन न करूं तब करे।
तक मैं निश्चितरूप से अवश्यकरणीय को अन्यथा नहीं करूंगा। २०७७. उवसंपज्जमाणेण, जा दत्ताऽऽलोयणा पुरा॥ नित्य का अर्थ है-जब तक कोई सहायक न मिले तब तक मैं यहां
अवसण्णेहि आगम्म, पडिक्कंतो उ भावतो॥ (गण में) रहूंगा। २०७८. जा याणुण्णवणा पुव्वं, कता साधम्मि उग्गहे। २०८४. दिवसे दिवसे वेउट्टिया उ पक्खे व वंदणादीसु। संभावणाय सालंद, जा भावो अणुवत्तती॥
पट्ठवणमादिएसुं, उववाय पडिच्छणा बहुधा।। अन्य गण से आकर उपसंपद्यमान को जो पहले आलोचना दिवस-दिवस अर्थात् प्रतिदिन, पाक्षिक के दिन, वंदन दी है, वही रहेगी। पूर्व में अवसन्न मुनियों से आकर भावतः आदि के समय स्वाध्याय आदि की प्रस्थापना में बहुत प्रकार से प्रतिक्रांत किया है वही प्रतिक्रमण रहेगा। साधर्मिक के अवग्रह की उपपात प्रतीच्छन की अनुज्ञा लेता है। जो अनुज्ञापना पूर्व में की है, वही रहती है। जब तक भाव २०८५. अब्भुवगते तु गुरुणा, अनुवर्तित रहता है तब तक उक्त काल तक ही नहीं, किंतु
सिरेण संफुसति तस्स कमजुगलं । चिरकाल तक अवग्रह आदि की अनुज्ञापना रहती है।
कितिकम्ममादिएसु य, २०७९, परं ति परिणते भावे, परिभूतो तु सो पुणो।
नितमणिंते य जे फासा॥ नवोवसंपदाए व, तत्थाऽऽलोए पडिक्कमे॥ गुरु जब इसको स्वीकार कर लेते हैं तब शिष्य उनके
सूत्र में 'परं चउराय पंचरायातो' ऐसा पाठ है। इसमें प्रयुक्त चरणयुगल का सिर से स्पर्शन करता है-प्रणाम करता है। फिर 'पर' शब्द की अर्थवत्ता विशेष है। 'गच्छ से मैं निष्क्रमण करूं', कहता है-कृतिकर्म आदि क्रियाओं के लिए आते-जाते जो इस भाव से परिणत होने पर वह गच्छ से परिभूत हो जाता है। कायस्पर्श होता है उसकी आप आज्ञा दें।
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