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सानुवाद व्यवहारभाष्य
प्रथम भंग है। द्वितीय में संयतिसहित। संयतियां कालचारिणी हो तक भी रह सकता है। तो वस्तव्य हैं।
१९८१. वासं खंधार नदी, तेणा सावय वसेण सत्थस्स। १९७६. आदियणे कंदप्पे, वियालओरालिय वसंतीणं।
ऐतिहि कारणेहिं, अजतणजतणा य नायव्वा।। नितियादी छद्दसहा, संजोएमो अहाछंदो।। कारण ये हैं-वर्षा गिर रही हो, स्कंधावार आ-जा रहा हो,
अकालचारिकणी के लक्षण-जो भक्तपान का आदान (तथा नदी पूर्णरूप से बह रही हो, चोरों का तथा हिंस्र पशुओं का भय दान) करती हैं, जो कंदर्प के निमित्त आती हैं, जो अत्यधिक हो, सार्थवाह के वश गमन हो रहा हो-इन कारणों से चिरकाल विकाल वेला तक वहां रहती हैं-यह उनका अकालचारित्व तक भी रहा जा सकता है। वहां रहते यतना तथा अयतना ज्ञातव्य जानना चाहिए। इसी प्रकार नैत्यिक आदि का सोलह प्रकार का संयोग है, वहां रहा जा सकता है, सर्वत्र नहीं, यथाच्छंद को १९८२. दोसा उ ततियभंगे, गणंगणिता य गच्छभेदो य। छोड़कर।
सुयहाणी कायवधो, दोण्णि वि दोसा भवे चरिमे।। १९७७. ठिय निसिय तुयट्टे वा, गहितागहिते य जग्ग सुवणं वा। तीसरे भंग में दो दोष हैं-गाणंगणिकता तथा गच्छभेद
पासत्थादीणेवं नितिए मोत्तुं अपरिभुत्ते॥ होना। चरम भंग में भी दो दोष हैं-श्रुतहानि और कायवध। पार्श्वस्थों के उपाश्रय में रहना हो तो उपकरणों को ग्रहण १९८३. एमेव य वासासुं, भिक्खे वसधीय संक नाणत्तं। कर ऊर्ध्वस्थित रहे। न रह सके तो जागता हुआ बैठ जाए। वैसे
एगाह चउत्थादी, असती अन्नत्थ तत्थेव॥ भी न रह सके तो लेट जाए। यदि तीनों अवस्था में नींद की इसी प्रकार वर्षा संबंधी सूत्र जानने चाहिए। केवल भिक्षा आशंका हो तो उपकरणों को पास रखकर, बैठे-बैठे या लेट कर में, वसति में तथा शंका में नानात्व है। अन्यत्र जाना चाहिए। जागता हुआ रहे। यदि जागरण अशक्य हो तो उपकरण सहित उपवास से, बेले से, तेले से। अन्यत्र गमन के अभाव में वहीं अथवा उपकरण रहित अवस्था में लेट जाए। यह पार्श्वस्थों के वर्षावास करना चाहिए। (यह द्वार गाथा है। व्याख्या आगे।) उपाश्रय में बरती जाने वाली यतना है। नित्यवासियों के उपाश्रय १९८४. अपरीमाण पिहब्भावे, एगत्ते अवधारणे। में रहना हो तो उनके द्वारा परिभुक्त प्रदेश को छोड़कर अपरिभुक्त
एवं सद्दो उ एतेसुं, एगत्ते तु इहं भवे॥ प्रदेश में जागता हुआ अथवा सोता हुआ रहे।
‘एवं' शब्द अपरिमाण, पृथक्भाव, एकत्व, अवधारण-इन १९७८ एमेव अधाछंदे, पडिहणणा झाण-अज्झयण कण्णा। अर्थों में प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत प्रसंग में वह एकत्व के अर्थ में
ठाणठितो वि निसामे, सुण आहरणं च गहितेणं॥ प्रयुक्त है। पार्श्वस्थों के उपाश्रय की भांति ही यथाच्छंद विषयक १९८५. एगत्तं उउबद्धे, जधेव गमणं तु भंगचउरो य। यतना जाननी चाहिए। शक्ति हो तो यथाच्छंद के वचनों का
तध चेव य वासासु, नवरि इमं तत्थ नाणत्तं ॥ प्रतिहनन करे। अन्यथा ध्यान कर ले अथवा अध्ययन या एकत्व के अर्थ में एवं शब्द। जैसे ऋतुबद्ध काल में परावर्तन करें। अथवा कानों को स्थगित करे दे। दूरतर स्थान में गच्छांतर में गमन संबंधी चार भंग हैं। (जैसे शुद्ध का शुद्धगमन स्थित होने पर भी यदि सुनाई दे तो यथाच्छंद को कहे-तुम आदि) वैसे ही वर्षाकाल में जानना चाहिए। केवल उनमें यह आहरण-दृष्टांत सुनो। यह सारा गृहीतउपकरण होकर कहे। नानात्व है। १९७९. जध कारणे निगमणं, दि8 एमेव सेसगा चउरो। १९८६. पउरण्णपाणगमण, इहरा परिताव एसणाघातो। ओमे असंथरते, आयारे वइयमादीहिं॥
खेत्तस्स य संकमणे, गुरुगा लहुगा य आरुवणा ॥ जैसे कारणवश निर्गमन देखा गया है, उसी प्रकार शेष जो गच्छ प्रचुर अन्नपान वाले क्षेत्र में स्थित हो वहां चार द्वार (असंविग्न को निवेदन, यतना आदि) जैसे आचार- जाना चाहिए, अन्यथा परिताप होता है और उससे एषणाघात प्रकल्प में दुर्भिक्ष, वजिका आदि में, यदि पर्याप्त लाभ न हो तो, का प्रसंग आता है। वहां पर्याप्त न मिलने पर क्षेत्र-संक्रमण होता जाए।
है। वर्षावास में क्षेत्र-संक्रमण करने पर चार गुरुमास का १९८०. समणुण्णेसु वि वासो,एगनिसिं किमु व अण्णमोसण्णे। आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा वर्षारात्र-भाद्रपद और
असढो पुण जतणाए, अच्छेज्ज चिरं पि तु इमेहिं।। आश्विन में क्षेत्र-संक्रमण करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त समनोज्ञों के उपाश्रय में भी एक रात का निवास कल्पता है आता है। तो फिर अन्य-असांभोगिक तथा अवसन्न के उपाश्रयों की तो १९८७. वारग जग्गण दोसा, जागरियादी हवंति अन्नासु। बात ही क्या? अशठ मुनि यतनापूर्वक इन कारणों से चिरकाल
तेणादि 'संक लोए, भाविणमत्थं व पासंति॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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