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चौथा उद्देशक है मडंब आदि स्थानों में। १७८०. वेज्जस्स ओसधस्स व,
__ असतीय गिलाणतो व जं पावे। वेज्जसगासे निंतो,
आणेतो चेव जे दोसा। उस क्षेत्र में वैद्य और औषधि का अभाव होने पर ग्लान व्यक्ति जो परितापना पाता है, उस निमित्तक सारा प्रायश्चित्त आचार्य को आता है। अन्य क्षेत्र में ग्लान को वैद्य के पास ले जाने, लाने में परितापन तथा अनेक दोष होते हैं। तन्निमित्तक प्रायश्चित्त भी आचार्य को आता है। १७८१. नेचइया पुण घन्नं, दलंति असारा य अंचितादीसु।
अधिवम्मि होति रक्खा, निरंकुसेसु बहू दोसा॥ जिस क्षेत्र में नैचयिक-धान्य व्यापारी हों, वे दरिद्र व्यक्तियों को तथा राजपूज्य व्यक्तियों को धान्य देते हैं। वहां भिक्षा सुलभ होती है। जहां का अधिपति-राजा अनुकूल हो, वहां रक्षा होती है। निरंकुश क्षेत्र में रहने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। १७८२. पासंडभावितेसुं, लभंति ओमाण मो अतिबहूसु।
अवि य विसेसुवलद्धी, हवंति कज्जेसु उ सहाया। जो क्षेत्र अति बहुल पाषंडों से भावित है वहां साधुओं का अपमान होता है। (जहां पाषंड लोग अत्यधिक रहते हैं वहां भिक्षा भी सुलभ नहीं होती।) यह भी संभावित है कि अन्य पाषंडियों से विशेषोपलब्धि भी होती है तथा लोग अनेक कार्यों में सहायक बनते हैं। १७८३. नाण-तवाण विवड्डी,
गच्छस्स य संपया सुलभभिक्खे। न य एसणाय घातो,
नेव य ठवणाय भंगो उ॥ सुलभभिक्षा वाले स्थान में रहने से ज्ञान और तपस्या की विशेष वृद्धि होती है। गच्छ की संपदा बढ़ती है, एषणा का घात नहीं होता तथा स्थापना (मासकल्प अथवा वर्षाकल्प) का भंग नहीं होता। १७८४. वायंतस्स उ पणगं, पणगं च पडिच्छतो भवे सुत्तं।
एगग्गं बहुमाणो, कित्ती य गुणा य सज्झाए।। जो सूत्र की वाचना देता है और जो प्रतीच्छक है-सुनता
है-दोनों के पांच-पांच गुणों का लाभ होता है। एकाग्रता, बहुमान तथा कीर्ति-ये स्वाध्याय के गुण हैं। १७८५. संगहुवग्गहनिज्जर, सुतपज्जवजायमव्ववच्छित्ती।
पणगमिणं पुव्वुत्तं, जे चायहितोपलंभादी।
संग्रह, उपग्रह, निर्जरा, श्रुतपर्यवजात, अव्यवच्छित्ति-यह पंचक अथवा पूर्वोक्त आत्महितोपलंभ आदि पंचक। १७८६. एवं ठिताण पालो, आयरिओ सेस मासियं लहुयं ।
कप्पाट्ठिनीलकेसी, आयसमुत्था परे उभए।।
इस प्रकार वर्षाकाल में तीन मुनियों की स्थिति में दो मुनि भिक्षा के निमित्त चले जाते हैं। तब एक मुनि जो वसतिपालरूप में पीछे रहता है उसको आचार्य स्थापित करना चाहिए। शेष अर्थात् आचार्य व्यतिरिक्त वसतिपाल की स्थापना करने पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि तरुण श्रमण को वसतिपाल के रूप में स्थापित किया जाता है तो कप्पट्ठीबालिका तथा नीलकेशी-तरुणी स्त्री के साथ प्रतिसेवना से आत्मसमुत्थ तथा परसमुत्थ दोष उत्पन्न होते हैं। १७८७. तरुणे वसहीपाले, कप्पट्ठिसलिंगमादि आउभया।
दोसा उ पसज्जंती, अकप्पिए दोसिमे अण्णे॥ तरुण श्रमण के वसतिपाल होने पर तरुणी बालिका की भांति स्वलिंग आसेवन, गृहिलिंग आसेवन रूप आत्मसमुत्थ
और परसमुत्थ दोषों का प्रसंग आता है। अकल्पिक अर्थात् बालक आदि के विषय में ये अन्य दोष होते हैं। १७८८. बलि धम्मकहा किड्डा,
पमज्जणा वरिसणा य पाहुडिया। खंधार अगणिभंगे,
मालवतेणा य णाती य॥ यदि बालक मुनि को वसतिपाल के रूप में स्थापित किया जाता है तो ये दोष आते हैं-(१) बलिदोष (२) धर्मकथा (३) क्रीडा (४) प्रमार्जना (५) आवर्षण (६) प्राभृतिका (७) स्कंधावार (८) अग्नि (९) मालवस्तेनों का भय (१०) ज्ञातिजन। (इन सारे उपायों से बालक मुनि को भयभीत कर उसका अपहरण कर लेते हैं अथवा उपधि का अपहरण कर लेते हैं।) १७८९. तम्हा पालेति गुरू, पुव्वं काऊण सरीरचिंतं तु।
इहरा आउवधीणं, विराधणा धरेंतमधरेंते॥
१. चतुभंगी-(१) जनाकुल-कुलाकुल (२) जनाकुल न कुलाकुल (३)
न जनाकुल पर कुलाकुल और (४) न जनाकुल और न कुलाकुल। पहले में बहुत कुल, बहुत मनुष्य। दूसरे में थोड़े कुल, बहुत मनुष्य। तीसरे में बहुत कुल, मनुष्य कम तथा चौथे में न बहुत कुल और न बहुत मनुष्य। पहला और दूसरा भंग भोजिक आदि अनेक जनों से आकीर्ण होने के कारण जनाकुल होता है। मडंब आदि स्थानों में
कुलाकुल माना गया है। वृत्तिकार ने मडंब में अठारह हजार कुल माने
हैं-मडम्बे अष्टादशकुलसहस्राणि। २. (१) संग्रह-शिष्य आदि का संग्रह (२) उपग्रह (३) निर्जरा (४)
श्रुतपर्यवजात-श्रुतज्ञान के नये-नये पर्यायों की अवगति (५) तीर्थ की अव्यवच्छित्ति अथवा (१) आत्महितोपलंभ (२) परहितोपलम्भ (३) उभयहितोपलंभ (४) एकाग्रता तथा (५) बहुमान।
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