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सानुवाद व्यवहारभाष्य
उसका होता है।
द्वारा वह उपशांत होता है, उसी का वह हो जाता है। इतना १८३७. साधारणट्ठिताणं, सेहे पुच्छंतुवस्सए जो उ। आयास इसलिए किया जाता है कि वह अनुपशांत रहकर संसार
दूरत्थं पि हु निययं, साहती उ तस्स मासगुरू ॥ में नष्ट न हो जाए, संसार का परिभ्रमण न करे। कोई शैक्ष मार्गगत किसी मुनि को साधारण क्षेत्र स्थित १८४३. जं जाणह आयरियं, तं देह ममं ति एव भणितम्मि। उपाश्रय के विषय में पूछता है तो वह मुनि (स्वार्थवश) अपने
जदि बहुया ते सीसा, दलंति सव्वेसिमेक्केक्कं॥ दूरस्थ अपाश्रय को अथवा निकटस्थ उपाश्रय को बताता है तो 'जिनको तुम आचार्य जानते हो, उन्हें मुझे दिखाओ'-ऐसा वह एक गुरुमास के प्रायश्चित्त का भागी होता है।
कहने पर यदि शिष्य के रूप में वहां उपस्थित अनेक होते हैं तो वे १८३८. सव्वे उद्दिसियव्वा, अह पुच्छे कतर एत्थ आयरिओ।। सभी एक-एक कर अपनी सम्मति देते हैं और परस्पर सम्मति से
बहुस्सुय तवस्सि व पव्वायगो य तत्थ वि तहेव॥ उसे किसी एक आचार्य को सौंप देते हैं। उस मुनि को चाहिए वह यथाक्रम सभी उपाश्रयों तथा १८४४. रायणिया थेराऽसति, कुल-गण-संघे दुगादिणो भेदो। अमुक उपाश्रय में अमुक आचार्य हैं और अमुक उपाश्रय में अमुक
एमेव वत्थ-पाए, तालायर सेवगा भणिता।। आचार्य हैं, यह बताए। यदि वह शैक्ष पूछे कि कौन आचार्य यदि एक ही शिष्य (शैक्ष) हो तो जो रत्नाधिक है उसको बहुश्रुत है, कौन तपस्वी है और कौन प्रव्राजक है तो उसे पूर्ववत् समर्पित कर देते हैं। यदि सभी रत्नाधिक हों तो स्थविर को, सभी यर्थाथ बात कहे। अन्यथा कहने वाला प्रायश्चित का भागी होता। स्थविर हों तो जिसके शिष्य न हो उसको। यदि सभी स्थविरों के
शिष्य न हो तो कुलस्थविर को, अथवा गणस्थविर को अथवा १८३९. सव्वे सुतत्था य बहुस्सुया य,
संघस्थविर को। दो प्रभृति आदि शिष्यों के विभाग के विषय में पव्वायगा आयरिया पहाणा। जानना चाहिए। इसी प्रकार तालाचर, सेवक आदि से दान में एवं तु वुत्ते समुवेति जस्स,
प्राप्त वस्त्र, पात्र आदि के विषय में जानना चाहिए। (इसकी सिढे विसेसे चउरो य किण्हा॥ विस्तृत व्याख्या आगे के श्लोकों में।) . यदि सभी आचार्य श्रुतार्थ से सम्पन्न हैं, सभी बहुश्रुत हैं, १८४५. रायणियस्स उ एगं, दलंति तुल्लेसु थेरगतरस्स। सभी प्राव्राजक हैं, तो जो अचार्य जिसमें प्रधान हो उसका यथार्थ
तुल्लेसु जस्स असती, तहावि तुल्ले इमा मेरा।। निरूपण करे। इस प्रकार यथार्थ कहने पर वह शैक्ष जिसके पास एक ही शिष्य हो तो उसे रात्निक को सौंप देना चाहिए। जाकर उपसंपन्न होता है, वह उसी का होता है। यदि वह मुनि यदि सभी समान रत्नाधिक हों तो उन तुल्य रत्नाधिकों में जो अपने आचार्य को विशिष्ट बताता है तो उसे चार कृत्स्न अर्थात् स्थविर हो उसको, स्थविर भी यदि समान हों तो जिसके शिष्य चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।
न हो उसको, यदि शिष्याभाव के कारण सभी तुल्य हों तो यह १८४०. धम्ममिच्छामि सोउं जे, पव्वइस्सामि रोइए। मर्यादा है।
कहणा लद्धितोऽहीणो, जो पढमं सो उ साहति॥ १८४६. साकुलगा कुलथेरे, गण-थेर गणिव्वएयरे संघे। वह शैक्ष आचार्य के पास आकर कहता है-'मैं धर्म सुनना
रायणिय थेर असती, कुलादिथेराण वि तहेव।। चाहता हूं। धर्म मुझे रुचिकर लगेगा तो प्रव्रजित हो जाऊंगा।' यदि सभी समान कुलवाले हों तो कुल स्थविर को, अथवा उसको वह मुनि पहले धर्म सुनाए जो कथनलब्धि से संपन्न हो। गणस्थविर को, इतर गण वाले हों तो संघस्थविर को। रत्नाधिक १८४१. पुणो वि कहमिच्छंते, तत्तुल्लं भासते परो। स्थविर के अभाव में कुल आदि स्थविरों को। यह एक के अभाव ____ एवं तु कहिते जस्स, उवट्ठायति तस्स सो॥ की स्थिति पर करना होता है।
यदि वह शैक्ष पुनः धर्मकथा सुनना चाहे तो पहले वाले १८४७. साधारणं व काउं, दोण्ह वि सारेंत जाव अण्णो उ। धर्मकथक के तुल्य दूसरा धर्मकथा करे। इस प्रकार धर्मकथा को
उप्पज्जति सिं सेहो, एमेव य वत्थपत्तेसु।। सुनकर वह जिसके पास उपसंपन्न होता है, उसी का वह शिष्य उस शैक्ष को साधारणरूप से शिष्य बनाकर, फिर दो होता है।
आचार्य या मुनि उस शैक्ष की सार-संभाल करते हैं जब तक की १८४२. अणुवसंते च सव्वेसिं, सलद्धिकहणा पुणो। दूसरा शिष्य प्राप्त नहीं हो जाता। इसी प्रकार वस्त्र, पात्र के विषय
रायणियादि उवसंतो, तस्स सो मा य नासउ॥ में जानना चाहिए। इस प्रकार सभी के पास धर्म कथा सुनने के पश्चात् भी वह १८४८. चोदेति वत्थपाया, कप्पंते वासवासि घेत्तुं जे। उपशांत नहीं होता तो रात्निक मुनि से धर्म कथा सुनाए। जिसके
जह कारणम्मि सेहो, तह तालचरादिसु वत्थाई॥
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